रूस ने यूक्रेन की सीमा पर एक लाख से अधिक सैनिक तैनात कर दिए हैं, जिसके बाद से पश्चिमी देशों, अमेरिका और रूस के बीच तनाव का माहौल है। ग्रुप सात देशों यानी अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान के विदेश मंत्रियों ने यूरोप में हुई बैठक के बाद रूस को चेतावनी दी है कि अगर वह यूक्रेन की सीमा पर तनाव बरकरार रखता है या उस पर हमला करता है तो उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। ये गंभीर परिणाम क्या होंगे, इसका जिक्र ग्रुप सात देशों के बयान में नहीं है। लेकिन माना जा रहा है कि ग्रुप सात रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा सकता है।
इससे पहले अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन से मंगलवार को दो घंटे विडियो कॉल पर बात की। इसके बाद भी दोनों के बीच तल्खी बनी रही। बातचीत के बाद बाइडन ने चेतावनी भरे लहजे में कहा कि रूस ने अगर यूक्रेन को परेशान किया तो रूस को कूटनीतिक परिणाम भुगतने होंगे। रूस ने फिलहाल यूक्रेन की उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी सीमाओं पर सैनिक तैनात कर रखे हैं। रिपोर्टों के अनुसार, रूस जनवरी या फरवरी तक यूक्रेन पर हमला कर सकता है। फिलहाल इस सैनिक जमावड़े को लेकर यूक्रेन में अफरातफरी का माहौल है और यूरोपीय देश भी इससे काफी चिंतित दिख रहे हैं। असल में, इस पूरे मामले को दो तरह से समझा जा सकता है। एक तो रूसी तर्क है। इसके अनुसार यूक्रेन हमेशा से रूस का हिस्सा था, जो उससे अलग हो गया। वैसे, सोवियत रूस के विघटन के बाद जब यूक्रेन अलग हुआ तो वहां अमूमन रूस समर्थक सरकारें ही बनीं। 2014 में जब सरकार बदली तो उसने यूरोप और पश्चिमी देशों से मित्रता बढ़ानी शुरू कर दी, जो रूस को नागवार गुजरी है।
रूस ताकत के जोर से यूक्रेन की इस कथित गलती को ठीक करना चाहता है। उसका तर्क है कि यूक्रेन से मित्रता के जरिए यूरोप उसे कमजोर करना चाहता है। रूस ने यूरोप के सामने प्रस्ताव रखा है कि वह उसकी कुछ मांगों को मान ले तो सेना हटा ली जाएगी। इनमें से प्रमुख मांग यह है कि यूरोप इस बात की कानूनी गारंटी दे कि वह यूक्रेन को कभी भी नाटो सैन्य संगठन का हिस्सा नहीं बनाएगा। साथ ही, यूक्रेन में पश्चिमी देशों के जो सैनिक हैं, वह संख्या अब नहीं बढ़ाई जाएगी। ये ऐसी मांगें हैं, जिन पर यूरोप का राजी होना मुश्किल है। इन शर्तों को मानने का अर्थ पूर्वी यूरोप में रूस के ऐतिहासिक प्रभाव पर मुहर लगाना होगा। यह इस मामले का एक पहलू है।
इसका दूसरा और ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू अंतरराष्ट्रीय राजनीति से जुड़ा हुआ है। अंतरराष्ट्रीय पटल पर अगर अमेरिका, चीन और रूस के संदर्भ में इस पूरे मामले को देखा जाए तो इसकी कई बारीकियां समझी जा सकती हैं। इसी हफ्ते नौ और दस दिसंबर को अमेरिका ने वर्चुअल डेमोक्रेसी समिट का आयोजन किया। इसमें दुनिया के कई देशों को बुलाया गया, लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने इसमें रूस और चीन को नहीं बुलाया। इससे दुनिया में यह संदेश गया कि ये दोनों देश लोकतांत्रिक नहीं हैं। यह रूस और चीन के लिए बहुत बड़ा कूटनीतिक झटका था क्योंकि अमेरिका ने इस बैठक में ताइवान और पाकिस्तान तक को बुलाया था।
अमेरिका द्वारा आमंत्रित देशों की सूची पर जमकर हंगामा हुआ और सैनिकों के जमावड़े के प्रसंग को इस घटना के आलोक में भी देखा जाना चाहिए। इस सूची के आने और समिट होने तक चीन और रूस ने लगातार अमेरिका की आलोचना की। लगभग हर दिन इस समिट के खिलाफ बयान दिए। दोनों देशों के वरिष्ठ अधिकारियों ने अमेरिकी अखबार में संयुक्त लेख तक लिखे। बाद में चीन ने यहां तक कहा कि अमेरिका लोकतंत्र को हथियार न बनाए। इस बीच दिसंबर के पहले सप्ताह में रूस ने अचानक एक बड़ा कदम उठाते हुए यूक्रेन की सीमा पर सैनिक भेजने शुरू कर दिए। इसे अंतराष्ट्रीय राजनीति में संघर्ष के लिए एक और मोर्चा खोलने के रूप में देखा जा सकता है।
थोड़ा और पीछे चलें तो पिछले दो साल में अमेरिका की नीति बहुत स्पष्ट रही है। वह अंतरराष्ट्रीय पटल पर चीन को अलग-थलग करने की कोशिश में लगा रहा है। कोविड और उसके बाद के बदलते वैश्विक परिदृश्य में यह साफ है कि चीन महाशक्ति के रूप में उभर रहा है। रूस भी आज अमेरिका के खिलाफ चीन के साथ रहने का मन बना चुका है। इसके साथ ही भारत के साथ भी रूस अपने संबंधों को बेहतर करने की लगातार कोशिशें कर रहा है, जिसके तहत पूतिन ने इस हफ्ते भारत की एक दिन की यात्रा भी की थी। वहीं, अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन अभी तक भारत नहीं आए हैं।
यूरोपीय देशों की मुश्किल
डेमोक्रेसी समिट के जरिए अमेरिका ने जता दिया कि वह किन देशों को साथ लेकर चलना चाहता है और उसकी व्यापक वैश्विक रणनीति चीन और रूस को अलग-थलग करने की है। जाहिर था कि रूस और चीन इसका कूटनीतिक रूप से जवाब देंगे। चीन ने जहां इस मामले में कई सारे बयान दिए, वहीं रूस ने यूक्रेन पर हमले की तैयारी तेज कर दी। रूस चाहता है कि जिस तरह से बाइडन ने डेमोक्रेसी समिट के जरिए अपना प्रभाव क्षेत्र निर्धारित किया है, उसी तरह यूक्रेन के मामले में यूरोप के देश वादा करें और तय करें कि पूर्वी यूरोप के इलाकों पर रूस के प्रभाव को वे मान्यता दे रहे हैं।
यह एक जटिल समस्या है क्योंकि सीमा पर एक लाख से अधिक सैनिक तैनात करने के बाद बिना किसी आश्वासन के रूस का पीछे हटना उसकी छवि को नुकसान पहुंचाएगा, जबकि अगर वह यूक्रेन पर हमला करता है तो दुनिया नए सिरे से एक तरह के शीतयुद्ध में प्रवेश करेगी। इस शीत युद्ध में एक तरफ अमेरिका और यूरोपीय देश होंगे तो दूसरी तरफ होंगे चीन और रूस।
सौजन्य से - नवभारत टाइम्स