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DevBhoomi Insider Desk
• Mon, 24 Apr 2023 11:00 am IST


लखनवी गुलाबी चाय की क्या है खासियत?


चायघर तो आपने बहुत देखे होंगे। उनके अजीबोगरीब नामों से चौंके भी होंगे और उनमें चाय भी पी होगी। अच्छी लगी होगी तो उसका फ्लेवर अभी तक याद होगा। लेकिन अगर कभी लखनऊ नहीं आए, तो शायद ही आपको पता हो कि चाय पीने की ही नहीं, खाने की भी चीज है और यह ‘खाने की चीज’ चायघरों के बजाय कारखानों में बनाई जाती है।

चौंकिए नहीं। पुराने लखनऊ में सोहाल, जीरा, जावित्री, लौंग, जायफल सहित कई अन्य गरम मसाले डालकर और बालाई यानी मलाई मारकर कश्मीरी या गुलाबी नाम से जो चाय बनाई जाती है, वह पी नहीं जाती, खाई जाती है। हां, चायघर में आप इसे खा ही सकते हैं, बनते नहीं देख सकते। वह इसलिए क्योंकि इसे कारखानों में खास विधि से बनाया जाता है और इस काम में कई-कई घंटे लगते हैं। बन जाने के बाद इसे कंटेनरों में भरकर चायघरों में लाया जाता है, जहां तलबगारों को परोसने से पहले इसे चूल्हे पर उबाला जाता है।

पी जाने वाली चाय का कोई खास मौसम नहीं होता, लेकिन यह खाई जाने वाली चाय लखनवियों को गुलाबी ठंड के मौसम में ही ज्यादा भाती है। बताते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के अंत में इसके स्वाद का जादू तब उनके सिर चढ़कर बोलने लगा, जब नवाब आसफउद्दौला के बेटे वजीर अली की शादी की धूमधाम के बीच कश्मीर से आए खानसामों ने कहवे की तर्ज पर इसे तैयार कर मेहमानों को पेश किया। कश्मीर से इस चाय का महज इतना भर रिश्ता होने के बावजूद श्रेय देने में दरियादिल लखनवियों ने इसे कश्मीरी चाय कहना शुरू कर दिया, सो इसने इसी नाम से शोहरत पाई। अलबत्ता, बाद में इसे गुलाबी चाय का नाम भी मिला।

लेकिन इस नाम से भी ज्यादा दिलचस्प यह है कि लखनऊ में चायघरों में जाकर चाय पीने का रिवाज उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भी परवान नहीं चढ़ पाया था। भले ही अंग्रेजों ने 1857 का स्वतंत्रता संग्राम जीत कर शहर पर ही नहीं, उसकी सामूहिक चेतना पर भी कब्जा जमा लिया था और निरंकुश विजेता की तरह उसके रीति-रिवाजों को कमतर और हेय ठहराकर उसके शहरियों पर क्लबों-सोसायटियों की अपनी पसंद की जीवनशैली थोपने लगे थे। इस शताब्दी के नवें दशक में उन्होंने कृषि और व्यापार के तत्कालीन निदेशक मीर मुहम्मद हुसैन की मार्फत ऐन चौक में चायखाना खुलवाया और उसमें उठने-बैठने के लिए सरकारी खर्चें पर आलीशान फर्नीचर की व्यवस्था कराई। इतना ही नहीं, चाय के अलावा कई दूसरे पेय भी बेहद सस्ती दर पर उपलब्ध कराए। बस इतनी बंदिश रखी कि वहां शराब नहीं पी जा सकेगी।

इसके पीछे उनकी मंशा यह थी कि यूरोप के क्लबों या सोसायटियों की तरह लखनऊ में भी ऐसी जगहें विकसित की जाएं, जहां फुरसत के पलों में शहरी जाकर न सिर्फ खाएं-पिएं, बल्कि बैठकर गप्पें हांकें, अखबार पढ़ें और दोस्तों-परिचितों से मिलें-जुलें। लेकिन बलिहारी लखनवियों की, उन्होंने इस चायघर की तरफ झांकना तक कबूल नहीं किया। उन्हें गवारा नहीं हुआ कि अंग्रेज उसकी मार्फत उन पर अपनी संस्कृति थोप दें। आखिरकार घाटे के नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हो जाने के बाद मीर मुहम्मद हुसैन उसे बंद करके हैदराबाद चले गए।

दरअसल, उन दिनों लखनऊ का रूप-रंग या रवायतें कुछ और ही थीं और उसके शहरी परस्पर मेल-जोल के लिए किसी क्लब, सोसायटी या चायघर के मोहताज नहीं थे। शहर के रईस और अमीर अपने दौलतखानों में अक्सर महफिलें जमाते, दावतें वगैरह देते रहते थे। उनमें आने वालों को वे हुक्का पिलाते और पान वगैरह खिलाते।

जानकारों के अनुसार उन महफिलों में तकल्लुफ की कोई जगह नहीं होती थी और वक्त की मांग के अनुसार उनका रंग बदलता रहता था। कभी चुटकुले सुनाए जाने लगते, कभी नोक-झोंक होती और कभी शेर-ओ-शायरी। विद्वान बुलाए गए होते तो शास्त्रार्थ भी छिड़ जाता। रंगीन मिजाज सामंतों, अमीरों और रईसों को मन बहलाना होता तो तवायफें भी बुलाई जातीं। बात चलती तो सामंतों के शाही पहनावे, ऐश्वर्य और खान-पान से निकलकर शिष्टता, तमीज, तहजीब या बदतमीजी अन्याय और अत्याचार तक भी जा पहुंचती। ऐसे में लखनवियों को भला चायघर क्योंकर सुहाता? और नहीं सुहाता तो वे उसे क्योंकर भाव देते?

सौजनन्य से : नवभारत टाइम्स