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DevBhoomi Insider Desk
• Mon, 12 Sep 2022 12:19 pm IST


क्या विवाह संस्था जरूरी है?


कुछ दिन पहले केरल हाई कोर्ट में तलाक का एक केस आया। वजह तार्किक न लगने के कारण कोर्ट ने तलाक की अर्जी खारिज कर दी। मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा, ‘तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। युवा पीढ़ी को शादी बुराई लगती है। वह इसे बोझ के रूप में देखती है। लिवइन रिलेशनशिप के मामले बढ़ रहे हैं। युवा पीढ़ी को शादी बुराई लगती है।’ यह वाक्य पारंपरिक वैल्यू सिस्टम वाले लोगों को शूल की तरह चुभता है। इसके लिए वे फौरी तौर पर युवाओं को दोषी भी ठहरा देते हैं और जीवन मूल्यों की तमाम नसीहतें भी दे डालते हैं- परिवार कुर्बानी मांगता है, युवा बहुत ज्यादा स्वार्थी हो गए हैं वगैरह-वगैरह। समस्या की असल वजह समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा।

खेती करने वाले परिवारों की ओर देखिए, ज्यादातर परिवार संयुक्त हैं। यानी पिता, उनके बेटे और उन बेटों के परिवार साथ रहते थे। पहली नजर में पारस्परिक प्रेम इसकी वजह लगती है, लेकिन असल में कारण आर्थिक है। खेती एक ऐसा व्यवसाय, जिसके लिए काम करने वाले ज्यादा हाथों की जरूरत होती है। साथ ही खेती ज्यादा श्रम के बदले कम मुनाफा देती है। साफ है, आर्थिक जरूरतें और व्यवसाय की जरूरतें परिवार को जोड़े रहती हैं। अब औद्योगिक क्रांति की ओर बढ़ते हैं। फैक्ट्रियां ज्यादातर शहरों के बाहरी किनारों पर होती हैं। वहां काम करने वालों ने गांव छोड़े तो परिवार टूट गए। साथ ही फैक्ट्री में काम करने वाला परिवार का मुखिया इतना कमा लेता है कि वह अपनी न्यूक्लियर फैमिली यानी बीवी-बच्चों का खर्च उठा लेता है। उसके पास अपने संयुक्त परिवार से अलग होने की आर्थिक क्षमता है। इससे थोड़ा और आगे बढ़ते हैं। अब समय है कॉरपोरेट जॉब्स का। बड़े शहरों में लड़के और लड़कियां बराबर से नौकरियां कर रहे हैं। लड़कियां आर्थिक रूप आत्मनिर्भर तो हो ही रही हैं परिवार को भी सपोर्ट कर रही हैं। वे लड़कों की तरह ही शादी जैसी संस्था में बंधे रहने की आर्थिक मजबूरी से आजाद हैं। आर्थिक संपन्नता अपने साथ इंडिविजुअलिज्म लाती है। यानी व्यक्ति की चेतना के केंद्र में वह खुद है। वह प्रेम, दोस्ती या रिश्तों के लिए नहीं खुद के लिए जीना चाहता है। ऐसा पहले यूरोप में हुआ, अब एशियाई मुल्कों में हो रहा है। इसी वजह से युवाओं को विवाह संस्था बोझ लगने लगी है और वे बिना किसी कमिटमेंट के लिवइन में रहना चाहते हैं।

अब सवाल यह कि विवाह संस्था नहीं रही तो क्या होगा? उससे पहले यह सोचना होगा की विवाह की जरूरत ही क्यों है? जाहिर है कि समाज को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए। अगर विवाह की जगह कोई दूसरा तरीका जो कि ज्यादा उदारवादी और आजादी महसूस करवाने वाला हो तो लोग उसकी ओर बढ़ेंगे ही और यह सामाजिक बदलाव स्वत: स्फूर्त हो रहा है। बंदिशें इसमें कुछ समय के लिए बाधा जरूर पैदा कर सकती हैं पर इसे रोक नहीं सकतीं।

 सौजन्य से : नवभारत टाइम्स