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• Mon, 8 Mar 2021 4:47 pm IST


महिलाओं के खिलाफ हिंसा से निपटने के लिए क्या हो सकते हैं प्रभावी कदम


महिलाओं से होने वाली हिंसा से निपटने का समग्र दृष्टिकोण अपराधियों के व्यवहार में बदलाव लाने के गंभीर प्रयासों के बगैर कभी पूरा नहीं हो सकता।

महिलाओं के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों के बारे में थॉमसन ​रॉयटर्स फाउंडेशन के वार्षिक सर्वेक्षण में भारत को सबसे पहला दर्जा दिया गया है। जिन मामलों पर विचार किया गया, उनमें यौन हिंसा की श्रेणी में भारत ने सबसे ‘बदहाल’ देशों में ‘पहला’ स्थान प्राप्त किया है। गैर-यौन हिंसा की श्रेणी में भारत 10 शीर्ष देशों में तीसरे स्थान पर रहा है। वैसे तो, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय तथा राष्ट्रीय महिला आयोग और भारत के अनेक विशेषज्ञों ने इस सर्वेक्षण के नतीजों को अतिशयोक्तिपूर्ण और पक्षपातपूर्ण करार दे कर नकार दिया है, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा (जीबीवी) सचमुच देश की एक बड़ी समस्या है, जिसे तत्काल हल किए जाने की जरूरत है।

2015-16 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS 4) में इस बात का उल्लेख किया गया है कि भारत में 15-49 आयु वर्ग की 30 फीसदी महिलाओं को 15 साल की आयु से ही शारिरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है। कुल मिलाकर NFHS 4 में कहा गया है कि उसी आयु वर्ग की 6 फीसदी महिलाओं को उनके जीवनकाल में कम से कम एक बार यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है।

भारत से इस बुराई को मिटाने के लिए महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को व्यापक सूचना-शिक्षा-संचार (IEC) के जरिए रोकने पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार के अभियान मौजूदा कानूनी प्रावधानों जैसे — घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष)अधिनियम, 2013 और भारतीय दंड संहिता की धारा 354A, 354B, 354C और 354D का अनुपूरक हो सकते हैं और उन्हें पूर्णता प्रदान कर सकते हैं — ये सभी कानून यौन प्रताड़ना और दर्शनरति तथा पीछा करने जैसे दुर्व्यवहार के अन्य स्वरूपों से सम्बंधित हैं। हालांकि ये कानून तभी प्रभावी हो सकते हैं, जब महिलाएं आगे आएं और दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज कराएं, जो कभी कभार ही होता है। इस तरह, आमतौर पर बदनामी के डर से काफी बड़ी संख्या में ऐसे मामले दर्ज ही नहीं हो पाते, खासतौर पर तब जब पीड़िता को अपने पति, परिवार के सदस्य या किसी अन्य परिचित के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी हो।

इसलिए, आपराधिक गतिविधियों की रोकथाम के लिए बनाए गए ये कानूनी प्रावधान आमतौर पर अपराध होने के बाद पीड़िता को सदमे से उबारने के उपायों के तौर पर ही इस्तेमाल होते हैं। 2013 में, मुम्बई पुलिस ने ओआरएफ के साथ साझेदारी करके “मुम्बई को महिलाओं और बच्चों के लिए सुरक्षित बनाने” के अभियान के तहत एक विज्ञापन अभियान की शुरुआत की। इसके तहत महिलाओं को आगे आने और महाराष्ट्र पुलिस की हेल्पलाइन 103 पर शिकायत दर्ज कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उसी साल ओ एंड एम ने एक अन्य अभियान शुरू किया, जिसमें पुलिस ने पुरुषों को चेतावनी दी कि यदि वे महिलाओं के साथ किसी किस्म की हिंसा करेंगे, तो उन्हें उसका अंजाम भुगतना पड़ सकता है। यदि इस तरह के अभियानों को देश भर में बढ़ावा दिया जाता, तो ये अपराध के बाद पीड़िता को सदमें से उबारने का उपाय भर न होकर कानून प्रवर्तन एजंसियों की मदद करते और अपराध की रोकथाम करते।

भारत अभी तक हमलावरों की मानसिकता का अध्ययन करने, समझने और उसमें बदलाव लाने का प्रयास करने के मामले में पिछड़ रहा है। हम अभी तक विशेषज्ञों द्वारा प्रचारित इस दृष्टिकोण की मोटे तौर पर अनदेखी कर रहे हैं कि “महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा और भेदभाव को सही मायनों में समाप्त करने के लिए पुरुषों और लड़कों को समस्या के भाग से बढ़कर देखना होगा; उन्हें इस मसले के समाधान के अविभाज्य अंग के तौर पर देखना होगा।” महिलाओं से होने वाली हिंसा से निपटने का समग्र दृष्टिकोण अपराधियों के व्यवहार में बदलाव लाने के गंभीर प्रयासों के बगैर कभी पूरा नहीं हो सकता।

हिंसा करने वाले अपराधी जन्म से ही दुव्यर्वहार करने के आदी नहीं होते। वे बचपन से ही उस तरह का व्यवहार करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार किए जाते हैं। मधुमिता पांडे ने ब्रिटेन की एंग्लिया रस्किन यूनिवर्सिटी के अपराध विज्ञान विभाग में अपने डॉक्टोरल शोध के लिए बलात्कार के 100 दोषियों का साक्षात्कार किया। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया, “जब मैं शोध के लिए गई, तो मैं समझती थी कि वे हैवान होंगे, लेकिन जब उनसे बात की कि तो महसूस हुआ कि वे कोई अनोखे इंसान नहीं थे। वे बेहद सामान्य इंसान थे। उन्होंने जो भी किया था वह अपने पालन-पोषण और सोच के कारण किया था।” महिलाओं के साथ होने वाली हर तरह की हिंसा के पीछे एक ही तरह की दास्तान है — उनका जन्म समाज में हुआ है, इसलिए समाज को ही उनमें सुधार लाने की दिशा में काम करना होगा।

इस तरह का सुधार लाने के लिए सबसे पहले कदम के तौर पर यह आवश्यक होगा कि “पुरुषों को महिलाओं के खिलाफ रखने” के स्थान पर पुरुषों को इस समाधान का भाग बनाया जाए। मर्दानगी की भावना को स्वस्थ मायनों में बढ़ावा देने और पुराने घिसे-पिटे ढर्रे से छुटकारा पाना अनिवार्य होगा। केयर इंटरनेशनल 2016 के पॉलिसी ब्रीफ, महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोकने में पुरुषों और लड़कों को शामिल करने का वर्ष, में इस बात का उल्लेख किया गया है कि मर्दानगी की भावना से से सीधे तौर पर निपटना किस तरह किसी के भी खिलाफ हिंसा — लेकिन खासतौर पर महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा या यौन हिंसा के विचार को चुनौती देना है — स्वीकार्य है।

देश भर के कम उम्र के लड़कों को आक्रामक और प्रभावशाली व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) इस बारे में चर्चा करता है कि किस तरह ऐसी विषाक्त मर्दांनगी की भावनाएं युवाओं के जहन में बहुत छोटी उम्र से ही बैठा दी जाती हैं। उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है, जहां पुरुष ताकतवर और नियंत्रण रखने वाला होता है तथा उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति प्रभुत्व का व्यवहार करना ही उनकी मर्दांनगी है। इन्हीं घिसी-पिटी बातों के परिणामस्वरूप महिलाओं और पुरुषों दोनों को नुकसान पहुंच रहा है और संतोषजनक, परस्पर सम्मानजनक संबंध स्थापित करने की संभावनाएं धूमिल हो रही हैं।

ऐसे हालात में तब्दीली लाने के लिए बहुत से गैर सरकारी संगठनों ने गंभीर प्रयास आरंभ किए हैं। ‘जागृति यूथ’ द्वारा लड़के-लड़कियों में समानता के विषय पर आयोजित की गई एक प्रशिक्षण कार्यशाला के दौरान एक युवक ने कहा, “मैं महिलाओं को पीटना या प्रताड़ित करना नहीं चाहता, लेकिन मैं ऐसा कह नहीं सकता, क्योंकि यदि मैं ऐसा कहूंगा, तो मेरा बहुत मजाक उड़ाया जाएगा।” इस तरह की ​कार्यशालाओं का विचार-विमर्श लड़कों को चरित्रहीन अपराधी तथा लड़कियों को पीड़िता के रूप में वर्णित करने की सामान्य धारणाओं को दूर करने पर केंद्रित रहा।

सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (CHSJ) द्वारा आयोजित ‘किशोर वार्ता’ एक अन्य नया प्रयास था, जिसके तहत शरीर की समझ, यौनिकता, लड़के-लड़कियों में भेदभाव, मर्दांनगी, मासिक धर्म, स्वपनदोष, लड़कियों की मोबिलिटी कंसेंट और शादी की उम्र आदि के बारे दृश्य-श्रव्य कहानियों की श्रृंखला तैयार की गई। कोई भी अपने बेसिक मोबाइल फोन के जरिए एक निशुल्क नम्बर डायल करके इन ऑडियो कहानियों को सुन सकता है।

प्रयास प्रभावशाली होने के बावजूद कुछ गिने-चुने शहरों तक ही सीमित रहे हैं और इस विकराल समस्या का समाधान करने के लिए काफी नहीं हैं। केंद्र सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित परियोजनाओं के लिए अपने स्तर पर वर्ष 2013 में निर्भया कोष की स्थापना की थी। वर्ष 2013 से 2017 के दौरान इस कोष की धनराशि बढ़कर 3,100 करोड़ रुपये हो चुकी है। अधिकार प्राप्त समिति द्वारा केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों की ओर से इस कोष के अंतर्गत महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा से संबंधित 2,209.19 करोड़ रुपये की राशि के 22 प्रस्ताव निरुपित और अनुशंसित किए गए हैं। इन 22 प्रस्तावों में ‘वन-स्टॉप सेंटर’ जैसी योजनाएं शामिल हैं, जिनकी स्थापना हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता के लिए चिकित्सकीय, कानूनी और मनोवैज्ञानिक सेवाओं की एकीकृत रेंज तक उनकी पहुंच सुगम बनाने के लिए की गई है। उन्हें ‘181’ और अन्य हेल्पलाइन्स से जोड़ा जाएगा। अब तक, 151 वन-स्टॉप सेंटर्स शुरु किए जा चुके हैं। ‘महिलाओं की हेल्पलाइन का सार्वजनीकरण’ योजना का उद्देश्य हिंसा से पीड़ित महिला को रेफरल के माध्यम से 24 घंटे तत्काल और आपात राहत पहुंचाना है। यह हेल्पलाइन देश भर में महिलाओं से संबंधित सरकारी योजनाओं के बारे में भी जानकारी प्रदान करती है।

वैसे तो ये योजनाएं लागू की जा रही हैं और आखिरकार इनके नतीजे भी सामने आने लगे हैं, लेकिन वे तब तक इस समस्या का समाधान करने में समर्थ नहीं हो सकेंगी, जब तक हम व्यवहार में बदलाव लाने की अनवरत पद्धति की शुरुआत नहीं करेंगे। ऐसा स्वस्थ मर्दानगी की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए केंद्र और राज्य द्वारा सामूहिक राष्ट्रव्यापी आईईसी अभियान चलाकर किया जा सकता है। अनवरत चलने वाले आईईसी अभियानों ने अतीत में उल्लेखनीय सफलता प्रदर्शित की है। मिसाल के तौर पर, यूनिसेफ और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2002 में पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम के लिए बनाया गया टेलीविजन विज्ञापन ‘दो बूंद जिंदगी की।’ इस विज्ञापन में सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन माताओं को अपने बच्चों को पोलियो बूथ नहीं ले जाने पर डांट रहे हैं। इसके, साथ ही साथ देश भर में स्थानीय स्व-शासन निकायों द्वारा समन्वित रूप से चलाए गए अभियानों की बदौलत आखिरकार वर्ष 2014 में ‘पोलियो मुक्त भारत’ संभव हो सका।

सामाजिक IEC अभियान का एक अन्य ​उदाहरण स्वच्छ भारत मिशन (SBM) है, जो भारत को स्वच्छ बनाने तथा अक्टूबर 2019 तक खुले में शौच से से छुटकारा पाने के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विविध प्रकार के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रमुख पहल है। विविध टेलीविजन विज्ञापनों में जिनमें जानी-मानी हस्तियों को एसबीएम के विभिन्न पहलुओं को निशाना बनाते दर्शाया गया, इस​के ​अलावा एसबीएम को सोशल मीडिया, रेडियो विज्ञापनों, प्रकाशित विज्ञापनों और ऑउट-ऑफ-होम विज्ञापनों और बड़े पैमाने पर अखिल भारतीय आयोजनों के जरिए प्रचारित किया गया।

IEC के जरिए बुनियादी स्तर पर व्यवहार में बदलाव लाने को बढ़ावा देने के लिए हिंदुस्तान यूनीलीवर के ‘रोटी रिमांइडर’ जैसे अभियान को व्यवहार में अपनाया जा सकता है। कुम्भ के मेले (2013) के दौरान उन्होंने मेला स्थल पर 100 से ज्यादा ढाबों और होटलों के साथ साझेदारी करके 2.5 मिलियन रोटियां उपलब्ध कराई, जिन पर “लाइफब्वाय से हाथ धोए क्या?” लिखा होता था। इस गतिविधि के जरिए उन्होंने डायरिया और स्वास्थ्य से जुड़ी अन्य परेशानियों से निपटने में सहायक खाने से पहले हाथ धोने की आदत को बढ़ावा दिया।

इसी तरह, महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए वोग इंडिया ने ‘लड़के रुलाते नहीं’ अभियान चलाया, जबकि वैश्विक मानवाधिकार संगठन ‘ब्रेकथ्रू’ द्वारा घरेलू हिंसा के खिलाफ ‘बेल बजाओ’ अभियान चलाया गया — ये दोनों ही अभियान महिलाओं से होने वाली हिंसा से निपटने के लिए निजी स्तर पर किए गए शानदार प्रयास थे। इसी तरह, जिन राष्ट्रव्यापी अभियानों पर उल्लिखित सरकारी योजनाओं की तरह ही बल दिया जाएगा और जिन्हें केंद्र, राज्य तथा स्थानीय स्व-शासन निकायों के सामूहिक प्रयासों से लागू किया जाएगा, तो वे पुरुषों और लड़कों के व्यवहार में बदलाव को प्रोत्साहित कर सकेंगे। यदि हम सही मायनों में “महिलाओं के खिलाफ हिंसा से मुक्त भारत” बनाना चाहते हैं, तो वक्त आ चुका है कि हम एक राष्ट्र के रूप में सामूहिक तौर पर इस बारे में चर्चा करना शुरू करें। एक अच्छा तरीका यह हो सकता है कि हम राष्ट्रव्यापी, अनवरत तथा हाई-टैक IEC अभियान की शुरुआत करें।

महिलाओं के लिए दुनिया के सबसे खतरनाक देशों के बारे में थॉमसन ​रॉयटर्स फाउंडेशन के वार्षिक सर्वेक्षण में भारत को सबसे पहला दर्जा दिया गया है। जिन मामलों पर विचार किया गया, उनमें यौन हिंसा की श्रेणी में भारत ने सबसे ‘बदहाल’ देशों में ‘पहला’ स्थान प्राप्त किया है। गैर-यौन हिंसा की श्रेणी में भारत 10 शीर्ष देशों में तीसरे स्थान पर रहा है। वैसे तो, महिला एवं बाल विकास मंत्रालय तथा राष्ट्रीय महिला आयोग और भारत के अनेक विशेषज्ञों ने इस सर्वेक्षण के नतीजों को अतिशयोक्तिपूर्ण और पक्षपातपूर्ण करार दे कर नकार दिया है, लेकिन इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा (जीबीवी) सचमुच देश की एक बड़ी समस्या है, जिसे तत्काल हल किए जाने की जरूरत है।

2015-16 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS 4) में इस बात का उल्लेख किया गया है कि भारत में 15-49 आयु वर्ग की 30 फीसदी महिलाओं को 15 साल की आयु से ही शारिरिक हिंसा का सामना करना पड़ा है। कुल मिलाकर NFHS 4 में कहा गया है कि उसी आयु वर्ग की 6 फीसदी महिलाओं को उनके जीवनकाल में कम से कम एक बार यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है।


भारत से इस बुराई को मिटाने के लिए महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को व्यापक सूचना-शिक्षा-संचार (IEC) के जरिए रोकने पर विचार किया जा सकता है। इस प्रकार के अभियान मौजूदा कानूनी प्रावधानों जैसे — घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष)अधिनियम, 2013 और भारतीय दंड संहिता की धारा 354A, 354B, 354C और 354D का अनुपूरक हो सकते हैं और उन्हें पूर्णता प्रदान कर सकते हैं — ये सभी कानून यौन प्रताड़ना और दर्शनरति तथा पीछा करने जैसे दुर्व्यवहार के अन्य स्वरूपों से सम्बंधित हैं। हालांकि ये कानून तभी प्रभावी हो सकते हैं, जब महिलाएं आगे आएं और दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज कराएं, जो कभी कभार ही होता है। इस तरह, आमतौर पर बदनामी के डर से काफी बड़ी संख्या में ऐसे मामले दर्ज ही नहीं हो पाते, खासतौर पर तब जब पीड़िता को अपने पति, परिवार के सदस्य या किसी अन्य परिचित के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी हो।

इसलिए, आपराधिक गतिविधियों की रोकथाम के लिए बनाए गए ये कानूनी प्रावधान आमतौर पर अपराध होने के बाद पीड़िता को सदमे से उबारने के उपायों के तौर पर ही इस्तेमाल होते हैं। 2013 में, मुम्बई पुलिस ने ओआरएफ के साथ साझेदारी करके “मुम्बई को महिलाओं और बच्चों के लिए सुरक्षित बनाने” के अभियान के तहत एक विज्ञापन अभियान की शुरुआत की। इसके तहत महिलाओं को आगे आने और महाराष्ट्र पुलिस की हेल्पलाइन 103 पर शिकायत दर्ज कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उसी साल ओ एंड एम ने एक अन्य अभियान शुरू किया, जिसमें पुलिस ने पुरुषों को चेतावनी दी कि यदि वे महिलाओं के साथ किसी किस्म की हिंसा करेंगे, तो उन्हें उसका अंजाम भुगतना पड़ सकता है। यदि इस तरह के अभियानों को देश भर में बढ़ावा दिया जाता, तो ये अपराध के बाद पीड़िता को सदमें से उबारने का उपाय भर न होकर कानून प्रवर्तन एजंसियों की मदद करते और अपराध की रोकथाम करते।

भारत अभी तक हमलावरों की मानसिकता का अध्ययन करने, समझने और उसमें बदलाव लाने का प्रयास करने के मामले में पिछड़ रहा है। हम अभी तक विशेषज्ञों द्वारा प्रचारित इस दृष्टिकोण की मोटे तौर पर अनदेखी कर रहे हैं कि “महिलाओं और लड़कियों के साथ होने वाली हिंसा और भेदभाव को सही मायनों में समाप्त करने के लिए पुरुषों और लड़कों को समस्या के भाग से बढ़कर देखना होगा; उन्हें इस मसले के समाधान के अविभाज्य अंग के तौर पर देखना होगा।” महिलाओं से होने वाली हिंसा से निपटने का समग्र दृष्टिकोण अपराधियों के व्यवहार में बदलाव लाने के गंभीर प्रयासों के बगैर कभी पूरा नहीं हो सकता।

हिंसा करने वाले अपराधी जन्म से ही दुव्यर्वहार करने के आदी नहीं होते। वे बचपन से ही उस तरह का व्यवहार करने के लिए मानसिक तौर पर तैयार किए जाते हैं। मधुमिता पांडे ने ब्रिटेन की एंग्लिया रस्किन यूनिवर्सिटी के अपराध विज्ञान विभाग में अपने डॉक्टोरल शोध के लिए बलात्कार के 100 दोषियों का साक्षात्कार किया। एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया, “जब मैं शोध के लिए गई, तो मैं समझती थी कि वे हैवान होंगे, लेकिन जब उनसे बात की कि तो महसूस हुआ कि वे कोई अनोखे इंसान नहीं थे। वे बेहद सामान्य इंसान थे। उन्होंने जो भी किया था वह अपने पालन-पोषण और सोच के कारण किया था।” महिलाओं के साथ होने वाली हर तरह की हिंसा के पीछे एक ही तरह की दास्तान है — उनका जन्म समाज में हुआ है, इसलिए समाज को ही उनमें सुधार लाने की दिशा में काम करना होगा।

इस तरह का सुधार लाने के लिए सबसे पहले कदम के तौर पर यह आवश्यक होगा कि “पुरुषों को महिलाओं के खिलाफ रखने” के स्थान पर पुरुषों को इस समाधान का भाग बनाया जाए। मर्दानगी की भावना को स्वस्थ मायनों में बढ़ावा देने और पुराने घिसे-पिटे ढर्रे से छुटकारा पाना अनिवार्य होगा। केयर इंटरनेशनल 2016 के पॉलिसी ब्रीफ, महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोकने में पुरुषों और लड़कों को शामिल करने का वर्ष, में इस बात का उल्लेख किया गया है कि मर्दानगी की भावना से से सीधे तौर पर निपटना किस तरह किसी के भी खिलाफ हिंसा — लेकिन खासतौर पर महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा या यौन हिंसा के विचार को चुनौती देना है — स्वीकार्य है।

देश भर के कम उम्र के लड़कों को आक्रामक और प्रभावशाली व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (UNFPA) इस बारे में चर्चा करता है कि किस तरह ऐसी विषाक्त मर्दांनगी की भावनाएं युवाओं के जहन में बहुत छोटी उम्र से ही बैठा दी जाती हैं। उन्हें ऐसी सामाजिक व्यवस्था का आदी बनाया जाता है, जहां पुरुष ताकतवर और नियंत्रण रखने वाला होता है तथा उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि लड़कियों और महिलाओं के प्रति प्रभुत्व का व्यवहार करना ही उनकी मर्दांनगी है। इन्हीं घिसी-पिटी बातों के परिणामस्वरूप महिलाओं और पुरुषों दोनों को नुकसान पहुंच रहा है और संतोषजनक, परस्पर सम्मानजनक संबंध स्थापित करने की संभावनाएं धूमिल हो रही हैं।

ऐसे हालात में तब्दीली लाने के लिए बहुत से गैर सरकारी संगठनों ने गंभीर प्रयास आरंभ किए हैं। ‘जागृति यूथ’ द्वारा लड़के-लड़कियों में समानता के विषय पर आयोजित की गई एक प्रशिक्षण कार्यशाला के दौरान एक युवक ने कहा, “मैं महिलाओं को पीटना या प्रताड़ित करना नहीं चाहता, लेकिन मैं ऐसा कह नहीं सकता, क्योंकि यदि मैं ऐसा कहूंगा, तो मेरा बहुत मजाक उड़ाया जाएगा।” इस तरह की ​कार्यशालाओं का विचार-विमर्श लड़कों को चरित्रहीन अपराधी तथा लड़कियों को पीड़िता के रूप में वर्णित करने की सामान्य धारणाओं को दूर करने पर केंद्रित रहा।

सेंटर फॉर हेल्थ एंड सोशल जस्टिस (CHSJ) द्वारा आयोजित ‘किशोर वार्ता’ एक अन्य नया प्रयास था, जिसके तहत शरीर की समझ, यौनिकता, लड़के-लड़कियों में भेदभाव, मर्दांनगी, मासिक धर्म, स्वपनदोष, लड़कियों की मोबिलिटी कंसेंट और शादी की उम्र आदि के बारे दृश्य-श्रव्य कहानियों की श्रृंखला तैयार की गई। कोई भी अपने बेसिक मोबाइल फोन के जरिए एक निशुल्क नम्बर डायल करके इन ऑडियो कहानियों को सुन सकता है।

प्रयास प्रभावशाली होने के बावजूद कुछ गिने-चुने शहरों तक ही सीमित रहे हैं और इस विकराल समस्या का समाधान करने के लिए काफी नहीं हैं। केंद्र सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित परियोजनाओं के लिए अपने स्तर पर वर्ष 2013 में निर्भया कोष की स्थापना की थी। वर्ष 2013 से 2017 के दौरान इस कोष की धनराशि बढ़कर 3,100 करोड़ रुपये हो चुकी है। अधिकार प्राप्त समिति द्वारा केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों की ओर से इस कोष के अंतर्गत महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा से संबंधित 2,209.19 करोड़ रुपये की राशि के 22 प्रस्ताव निरुपित और अनुशंसित किए गए हैं। इन 22 प्रस्तावों में ‘वन-स्टॉप सेंटर’ जैसी योजनाएं शामिल हैं, जिनकी स्थापना हिंसा की शिकार महिलाओं की सहायता के लिए चिकित्सकीय, कानूनी और मनोवैज्ञानिक सेवाओं की एकीकृत रेंज तक उनकी पहुंच सुगम बनाने के लिए की गई है। उन्हें ‘181’ और अन्य हेल्पलाइन्स से जोड़ा जाएगा। अब तक, 151 वन-स्टॉप सेंटर्स शुरु किए जा चुके हैं। ‘महिलाओं की हेल्पलाइन का सार्वजनीकरण’ योजना का उद्देश्य हिंसा से पीड़ित महिला को रेफरल के माध्यम से 24 घंटे तत्काल और आपात राहत पहुंचाना है। यह हेल्पलाइन देश भर में महिलाओं से संबंधित सरकारी योजनाओं के बारे में भी जानकारी प्रदान करती है।

वैसे तो ये योजनाएं लागू की जा रही हैं और आखिरकार इनके नतीजे भी सामने आने लगे हैं, लेकिन वे तब तक इस समस्या का समाधान करने में समर्थ नहीं हो सकेंगी, जब तक हम व्यवहार में बदलाव लाने की अनवरत पद्धति की शुरुआत नहीं करेंगे। ऐसा स्वस्थ मर्दानगी की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए केंद्र और राज्य द्वारा सामूहिक राष्ट्रव्यापी आईईसी अभियान चलाकर किया जा सकता है। अनवरत चलने वाले आईईसी अभियानों ने अतीत में उल्लेखनीय सफलता प्रदर्शित की है। मिसाल के तौर पर, यूनिसेफ और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2002 में पोलियो टीकाकरण कार्यक्रम के लिए बनाया गया टेलीविजन विज्ञापन ‘दो बूंद जिंदगी की।’ इस विज्ञापन में सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन माताओं को अपने बच्चों को पोलियो बूथ नहीं ले जाने पर डांट रहे हैं। इसके, साथ ही साथ देश भर में स्थानीय स्व-शासन निकायों द्वारा समन्वित रूप से चलाए गए अभियानों की बदौलत आखिरकार वर्ष 2014 में ‘पोलियो मुक्त भारत’ संभव हो सका।

सामाजिक IEC अभियान का एक अन्य ​उदाहरण स्वच्छ भारत मिशन (SBM) है, जो भारत को स्वच्छ बनाने तथा अक्टूबर 2019 तक खुले में शौच से से छुटकारा पाने के लिए शहरी और ग्रामीण स्तर पर विविध प्रकार के लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रमुख पहल है। विविध टेलीविजन विज्ञापनों में जिनमें जानी-मानी हस्तियों को एसबीएम के विभिन्न पहलुओं को निशाना बनाते दर्शाया गया, इस​के ​अलावा एसबीएम को सोशल मीडिया, रेडियो विज्ञापनों, प्रकाशित विज्ञापनों और ऑउट-ऑफ-होम विज्ञापनों और बड़े पैमाने पर अखिल भारतीय आयोजनों के जरिए प्रचारित किया गया।

IEC के जरिए बुनियादी स्तर पर व्यवहार में बदलाव लाने को बढ़ावा देने के लिए हिंदुस्तान यूनीलीवर के ‘रोटी रिमांइडर’ जैसे अभियान को व्यवहार में अपनाया जा सकता है। कुम्भ के मेले (2013) के दौरान उन्होंने मेला स्थल पर 100 से ज्यादा ढाबों और होटलों के साथ साझेदारी करके 2.5 मिलियन रोटियां उपलब्ध कराई, जिन पर “लाइफब्वाय से हाथ धोए क्या?” लिखा होता था। इस गतिविधि के जरिए उन्होंने डायरिया और स्वास्थ्य से जुड़ी अन्य परेशानियों से निपटने में सहायक खाने से पहले हाथ धोने की आदत को बढ़ावा दिया।

इसी तरह, महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए वोग इंडिया ने ‘लड़के रुलाते नहीं’ अभियान चलाया, जबकि वैश्विक मानवाधिकार संगठन ‘ब्रेकथ्रू’ द्वारा घरेलू हिंसा के खिलाफ ‘बेल बजाओ’ अभियान चलाया गया — ये दोनों ही अभियान महिलाओं से होने वाली हिंसा से निपटने के लिए निजी स्तर पर किए गए शानदार प्रयास थे। इसी तरह, जिन राष्ट्रव्यापी अभियानों पर उल्लिखित सरकारी योजनाओं की तरह ही बल दिया जाएगा और जिन्हें केंद्र, राज्य तथा स्थानीय स्व-शासन निकायों के सामूहिक प्रयासों से लागू किया जाएगा, तो वे पुरुषों और लड़कों के व्यवहार में बदलाव को प्रोत्साहित कर सकेंगे। यदि हम सही मायनों में “महिलाओं के खिलाफ हिंसा से मुक्त भारत” बनाना चाहते हैं, तो वक्त आ चुका है कि हम एक राष्ट्र के रूप में सामूहिक तौर पर इस बारे में चर्चा करना शुरू करें। एक अच्छा तरीका यह हो सकता है कि हम राष्ट्रव्यापी, अनवरत तथा हाई-टैक IEC अभियान की शुरुआत करें।