Read in App

DevBhoomi Insider Desk
• Sat, 5 Nov 2022 5:00 pm IST


दुनिया के सामने कैसे आएगा डार्क मैटर का सच


ब्रह्मांड के कई कॉन्सेप्ट्स हैं, जिन्होंने इंसानों को सदियों से उलझा रखा है। जैसे-जैसे ब्रह्मांड के बारे में हमारे ज्ञान बढ़ता गया और ज्यादा हैरतंगेज बातें हमारे सामने आती गईं। इन्हीं विचित्रताओं में से एक है- डार्क मैटर। डार्क मैटर, यानी पदार्थ का वह रूप, जिससे हम अभी भी अनजान हैं। यह न तो इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन सोखता है और न ही छोड़ता है। इसलिए इसे धरती या स्पेस में मौजूद किसी भी दूरबीन से नहीं देखा जा सकता। इसी वजह से खगोल विज्ञानी अब तक डार्क मैटर के अस्तित्व को प्रायोगिक रूप से साबित नहीं कर सके हैं।

पिछले दिनों ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी, अमेरिका के खगोल विज्ञानियों ने ऑनलाइन प्री-प्रिंट जर्नल ‘arxiv.org’ में एक रिसर्च पेपर पब्लिश किया। इसमें उन्होंने डार्क मैटर का पता लगाने का एक नया तरीका बताया है। इसमें पृथ्वी के वायुमंडल को डार्क मैटर डिटेक्टर के रूप में प्रयोग करने की बात कही गई है। यहां उसी मेथड का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसका प्रयोग वैज्ञानिक उल्का पिंडों की खोज करने के लिए दशकों से करते आ रहे हैं। आइए जानते हैं कैसे-


पृथ्वी के एटमॉस्फियर में दाखिल होते हुए उल्का पिंड हों या डार्क मैटर के पार्टिकल्स, दोनों ही आयोनाइजेशन पैदा करते हैं। इस तरह के रेडिएशन फ्री इलेक्ट्रॉन्स और बिजली के संचालन में सक्षम परमाणु छोड़ते हैं।
उल्का-ट्रैकिंग रेडार से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स इन फ्री इलेक्ट्रॉन्स को उछाल देती हैं। इससे उल्का पिंड की मौजूदगी का पता चलता है।
शोधकर्ताओं के मुताबिक, इस तकनीक की मदद से पूरी पृथ्वी को डार्क मैटर के पार्टिकल्स डिटेक्ट करने वाले डिवाइस के रूप में तब्दील किया जा सकता है।
ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी में फिजिक्स और एस्ट्रोनॉमी के प्रफेसर जॉन बीकॉम के मुताबिक जहां खगोल विज्ञानी कम द्रव्यमान में डार्क मैटर के मात्र सूक्ष्म पार्टिकल्स को देखते हैं, वहीं इस नए अध्ययन का मकसद डार्क मैटर पर बड़े पैमाने पर खोज को उन्नत बनाना है। यानी ज्यादा द्रव्यमान वाले पिंडों के पार्टिकल्स जो अमूमन ट्रेडिशनल डिटेक्टर्स की गिरफ्त से बाहर होते हैं।
जॉन और उनके सहयोगियों का कहना है कि डार्क मैटर की खोज करना इतना कठिन इसलिए है क्योंकि हो सकता है उसके पार्टिकल्स ज्यादा द्रव्यमान वाले हों। अगर डार्क मैटर का द्रव्यमान कम है तो ये कण सामान्य होंगे, लेकिन यदि द्रव्यमान ज्यादा होगा तो ये कण दुर्लभ होंगे।
इसलिए उन्होंने यह प्रस्ताव दिया है कि अगर डार्क मैटर के पार्टिकल्स मैक्रो लेवल पर हैं तो उल्काओं को ट्रैक करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक डार्क मैटर का पता लगा सकती है।
जॉन के मुताबिक किसी ने भी उल्का-ट्रैकिंग रेडार सिस्टम या फिर उसके द्वारा पहले से इकट्ठा किए गए डेटा का इस्तेमाल कर डार्क मैटर की खोज करने की कोशिश नहीं की। इस तकनीक में सटीकता और संवेदनशीलता तो है ही, इसके नतीजों की भी जांच की जा सकती है

है, मगर दिखता नहीं
सबसे पहले स्विस खगोल विज्ञानी फ्रिट्ज ज्विकी ने 1933 में डार्क मैटर का अनुमान लगाया था। डार्क मैटर को अपने ऑब्जर्वेशंस से 1975 में साबित किया अमेरिकी खगोल विज्ञानी वेरा रुबिन ने। एस्ट्रोनॉमिकल कैलकुलेशन से पता चला है कि हमारे ब्रह्मांड का 25 फीसदी हिस्सा डार्क मैटर के रूप में ऐसे पदार्थ से बना है, जिसे हम देख नहीं सकते। इसकी संरचना की पहचान खगोल विज्ञान की सबसे बड़ी अनसुलझी पहेलियों में से है, क्योंकि यह प्रकाश के साथ बिल्कुल प्रतिक्रिया नहीं करता। इसलिए इसकी मौजूदगी की पुष्टि और इसके गुणों का अध्ययन सिर्फ इसके मैटर, एनर्जी और जायंट कॉस्मिक स्ट्रक्चर्स (जैसे- गैलेक्सी, ब्लैक होल्स, गैलेक्सी क्लस्टर्स, सुपरक्लस्टर्स आदि) पर इसके ग्रेविटेशनल इफेक्ट्स द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से ही निर्धारित किया जा सकता है। यही वजह है कि अभी तक हम केवल इतना ही जान पाए हैं कि इसमें कौन से कंपोनेंट्स नहीं हैं, न कि यह कि इसमें कौन से कंपोनेंट्स मौजूद हैं!

बहरहाल, शोधकर्ताओं के मुताबिक भविष्य में ओहायो यूनिवर्सिटी वाली तकनीक से डार्क मैटर की पहेली को सुलझाने के अलावा ब्रह्मांड की संरचना और उसके स्वरूप को समझने में भी मदद मिल सकती है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स