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• Sat, 21 Oct 2023 1:22 pm IST


समलैंगिक शादी पर अभी खत्म नहीं हुई है लड़ाई


दो दशक के कानूनी संघर्ष के बाद सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से समलैंगिक समुदाय को कुछ खुशी, कुछ गम मिले हैं। केंद्र और राज्य सरकारों को इस वर्ग के कल्याण के लिए कई कदम उठाने का आदेश जारी होने से समलैंगिक वर्ग को न्यायिक और प्रशासनिक मान्यता मिल गई है। लेकिन पांच जजों के फैसले में शादी को मान्यता और गोद लेने के अधिकार के बारे में असहमति से जुड़े कानूनी मुद्दों को समझना जरूरी है।

गोद लेने का अधिकार

पहले इससे जुड़े कुछ बुनियादी तथ्यों पर एक नजर डाल लेना ठीक होगा।

गोद लेने के लिए हिंदू अडॉप्शन एंड मेंटिनेंस एक्ट 1956 का कानून है।
बच्चों को शोषण से बचाने के लिए 1993 में हेग की अंतरराष्ट्रीय संधि हुई थी, जिस पर भारत ने 2003 में सहमति व्यक्त की थी।
सेंट्रल एडॉप्शन रिसोर्स अथॉरिटी (कारा) के नियमों में बच्चों को गोद लेने के मानक और रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया निर्धारित की गई है। इनका मुख्य मकसद बच्चों के शोषण और मानव तस्करी को रोकना है।
नियमों के अनुसार शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक तौर पर सक्षम कपल्स को ही बच्चे गोद लेने की इजाजत है। कपल की परस्पर सहमति के साथ उनके बीच दो साल से अच्छे और स्थायी रिश्ते होना भी जरूरी है।
कपल और गोद लेने वाले बच्चों के बीच 25 साल से ज्यादा उम्र का फासला नहीं होना चाहिए।
चीफ जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ और जस्टिस एस के कौल के अल्पमत के फैसले में कारा के रेगुलेशन 5 (3) को भेदभावपूर्ण और गलत बताया गया है। उनके अनुसार यह नियम विवाहित और अविवाहित जोड़े के बीच भेद करता है, जिसका कोई तार्किक आधार नहीं है। उनके अनुसार अविवाहित जोड़े (जिनमें LGBTQ+ शामिल हैं) बच्चा गोद ले सकते हैं। अल्पमत के फैसले में रेगुलेशन 5 (3) और उसके तहत जारी सर्कुलर को संविधान के खिलाफ मानते हुए उसे गैर-कानूनी घोषित किया गया है। लेकिन बहुमत के फैसले में जस्टिस भट्ट, नरसिम्हा और हिमा कोहली के अनुसार कारा के रेगुलेशन 5 (3) में लिखे गए मैरिटल शब्द को न्यायिक आदेश से रद्द नहीं किया जा सकता। इसलिए यह वैध है।

विधि मंत्रालय की संसदीय समिति ने अगस्त 2022 की रिपोर्ट में कहा था कि LGBTQ+ समुदाय के सदस्यों को बच्चे गोद लेने की इजाजत मिलनी चाहिए। उसके अनुसार इस बारे में गोद लेने के नए कानून और नियम बनाने की जरूरत है। लेकिन ऐसा कानून बनाने से पहले समलैंगिक समुदाय के जोड़ों को कानूनी मान्यता लेने की जरूरत होगी, जिससे पेच फंस सकता है।

जहां तक समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने का मामला है तो सुप्रीम कोर्ट में दायर 20 याचिकाओं में समलैंगिक शादी को स्पेशल मैरिज एक्ट-1954 के तहत कानूनी मान्यता देने की मांग वाली अनेक याचिकाएं शामिल थीं। इस कानून के तहत अंतरजातीय और अंतरधार्मिक शादियों के रजिस्ट्रेशन का कानूनी प्रावधान है। याचिकाकर्त्ताओं ने अनुच्छेद-21 के तहत प्राइवेसी की तर्ज पर शादी के मौलिक अधिकार की मांग की थी।

संविधान पीठ के सभी पांच जजों ने सर्वसम्मति से कहा है कि भारतीय संविधान में शादी करने का मौलिक अधिकार हासिल नहीं है।
जजों ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट स्पेशल मैरिज एक्ट की संवैधानिक वैधता को रद्द नहीं कर सकता है।
जजों के अनुसार अगर विशेष विवाह अधिनियम को शून्य घोषित किया जाता है तो भारत आजादी से पहले के युग में चला जाएगा, जब दो भिन्न धर्मों और भिन्न जातियों के लोग शादी के रूप में अपने प्यार को व्यक्त करने में असमर्थ थे।
बहुमत के फैसले में जस्टिस रवींद्र भट्ट ने कहा कि सिर्फ कानून के जरिए ही शादी को मान्यता मिल सकती है और इस बारे में संसद से ही कानून बन सकता है।
जस्टिस चंद्रचूड़ के फैसले के अनुसार विषम लिंगीय किन्नरों को मौजूदा कानून और पर्सनल लॉ के तहत शादी करने का अधिकार है। उनके अनुसार क्वीर राइट्स को सुनिश्चित करने के लिए राज्य को समुचित कदम उठाने चाहिए।
बहुमत के फैसले में अनुच्छेद-21 के तहत समलैंगिक जोड़ों को पार्टनर चुनने के अधिकार पर तो सहमति जताई गई, लेकिन कहा गया कि उनके अधिकारों को कानूनी मान्यता देने के लिए सरकार और संसद को विवश नहीं किया जा सकता।
सुनवाई के दौरान दी गई सॉलिसिटर जनरल की सहमति को रेकॉर्ड करते हुए चीफ जस्टिस ने फैसले में कहा कि क्वीर समुदाय की समस्याओं के समाधान के लिए केंद्र सरकार उच्च स्तरीय समिति का गठन करेगी, जिसमें विशेषज्ञ और सभी हितधारक शामिल होंगे। यह समिति समलैंगिक जोड़ों को राशन कार्ड, संयुक्त खाता और पार्टनर को नॉमिनी के तौर पर परिवार का सदस्य माने जाने पर विचार करेगी।

आगे की राह

कई राज्यों में ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को आरक्षण का लाभ देने की योजना है। इसलिए जातिगत और सामाजिक, आर्थिक सर्वे और आगामी जनगणना में पुरुष और महिलाओं के अलावा क्वीर समुदाय के सदस्यों की गणना की मांग उठ सकती है। जजों के बहुमत का फैसला सरकार के लिए राहत की बात है। लेकिन जस्टिस भट्ट के रिटायरमेंट के बाद समलैंगिक वर्ग चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ वाले अल्पमत के फैसले के आधार पर पुनर्विचार याचिका से सुप्रीम कोर्ट में एक नए राउंड की कानूनी लड़ाई शुरू कर सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने नियम और कानूनों में बदलाव के लिए विधायिका को अधिकृत किया है, इसलिए संसद के शीत सत्र में इस बारे में निजी बिल पेश होने के साथ बहस की मांग भी हो सकती है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स