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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 28 Jan 2022 1:22 pm IST


बेरोजगारी, महंगाई जैसे मुद्दों पर मिलेंगे वोट?


पिछले कुछ महीनों से रोजगार और दूसरे आर्थिक मसलों से जुड़े मुद्दे सार्वजनिक मंचों से उठ रहे हैं। अभी रेलवे की नौकरी में गड़बड़ी को लेकर बिहार से उत्तर प्रदेश तक स्टूडेंट्स का आक्रामक आंदोलन हुआ जिसके बाद सरकार को झुकना पड़ा। किसान आंदोलन भी कहीं न कहीं आर्थिक मसलों से जुड़ा था। इसके अलावा बैंकों के निजीकरण से लेकर कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर टुकड़ों में विरोध की आवाज उठती रही है। इन सबके बीच बढ़ती महंगाई और आर्थिक विषमता से जुड़ी रिपोर्ट आती रही है। खासकर कोविड महामारी का असर जिस तरह से आर्थिक स्थिति पर पड़ा, उसके साइड इफेक्ट अब दिखने लगे हैं। अभी एक रिपोर्ट भी आई जिसमें कहा गया कि पिछले पांच सालों में गरीबों की आय 53 फीसदी कम हो गई। तीन दशक में पहली बार कमाई में कमी हुई। लेकिन अमीरों की कमाई लगातार बढ़ी है। सवाल यह है कि आम लोगों और युवाओं की जिंदगी से जुड़े ये ठोस मसले चुनावों में भी उठेंगे? क्या विपक्षी दल इन मसलों पर बीजेपी और केंद्र की मोदी सरकार को दबाव में ला पाएगी? सच यही है कि इस बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता है। हालांकि हालात चिंताजनक हैं। आर्थिक मंदी के बीच आम आदमी की कमाई प्रभावित हुई है। कोविड के दौरान करोड़ों लोगों की जमा पूंजी साफ हो गई। पेट्रोल-डीजल की कीमतों के साथ खाने-पीने की चीजों के चढ़ते दामों ने आम लोगों का बजट बिगाड़ दिया है। सरकार के लिए चिंता की बात यह है कि समस्या तुरंत समाप्त होती भी नहीं दिख रही है। विशेषज्ञ ग्लोबल स्तर पर आर्थिक मंदी आने की आशंका व्यक्त कर रहे हैं। इसके असर से भारत भी अछूता नहीं रह सकता।

मुफ्त राशन योजना काफी नहीं
देखा जाए तो देश में नोटबंदी के समय से ही आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियां लगातार बढ़ती रही हैं। आर्थिक संकट एक ऐसा मुद्दा है जिससे समाज का हर तबका प्रभावित हो रहा है। हालांकि बीजेपी गरीबों को मुफ्त राशन देने की योजना की बदौलत इस मुद्दे को बहुत हद तक काउंटर करने में सफल रही है लेकिन उसे पता है कि इसे आगे बहुत दिनों तक जारी नहीं रखा जा सकता है और न ही सिर्फ इसी के सहारे राजनीतिक चुनौतियों से निपटा जा सकता है।

दरअसल 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी आर्थिक मोर्चे पर आम लोगों की परेशानी को बड़ा मुद्दा बनाकर सामने आई थी। तब ‘बहुत हुई महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ और ‘बहुत हुई पेट्रोल-डीजल की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ जैसे नारों का जनमानस पर बड़ा प्रभाव पड़ा था। सोशल मीडिया पर मनमोहन सरकार के खिलाफ अभियान चलाया गया था और इन दोनों को खराब गवर्नेंस से जोड़कर पेश किया गया था। उन चुनावों में मिली जीत के बाद मोदी सरकार को पहले टर्म में आर्थिक मोर्चे पर अधिक चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा। महंगाई नियंत्रण में रही। ग्लोबल स्तर पर कच्चे तेल की कीमत कम रही जिसके कारण पेट्रोल-डीजल की कीमत भी खास नहीं बढ़ी। इसका लाभ फिर 2019 में मिला। लेकिन दूसरे टर्म में कोरोना के साथ ही ग्लोबल स्तर पर हो रही उठापठक भी अपना असर दिखाती रही। पिछले दिनों आए ओपीनियन पोल में भी यह बात सामने आई कि भले अभी भी अधिकतर लोग सरकार के साथ हैं लेकिन अपनी आय, महंगाई और सरकार की नीतियों को लेकर निराश लोगों की तादाद तेजी से बढ़ी है। युवाओं के बीच बेरोजगारी को लेकर असंतोष भी बढ़ा है।

तो क्या अगले कुछ सालों में आर्थिक मुद्दे सियासत की मुख्यधारा के केंद्र में आएंगे और विपक्ष इस मुद्दे पर बीजेपी को घेरने में सफल होगा? विपक्ष के नेता अभी के हालात को 1990 में अमेरिका के हालात से जोड़कर बताते हैं कि जब वहां खाड़ी युद्ध में मिली जीत के बाद जॉर्ज बुश लोकप्रियता के शिखर पर थे तब बिल क्लिंटन ने ‘इट्स द इकॉनमी स्टुपिड’ का नारा देकर पूरे चुनाव को आर्थिक मुद्दे पर शिफ्ट कर दिया था। इसमें उन्हें अप्रत्याशित रूप से सफलता मिली।

कहां है विपक्ष का विजन

कुछ सालों से राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के मिश्रण से बने भावनात्मक माहौल और गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के मेल ने चुनावी मैदान में बीजेपी को अजेय सा बना दिया। विपक्ष बीजेपी की इस घेरेबंदी को भेदने का नुस्खा अब तक तलाश नहीं पाया है। ऐसे में पूरी लड़ाई को आर्थिक मसलों पर केंद्रित करना उसे सबसे ज्यादा फायदेमंद लग रहा है। इसी संदर्भ में अमेरिका के बिल क्लिंटन का उदाहरण उसका ध्यान खींच रहा है। लेकिन यह आसान नहीं है। पहली दिक्कत यह है कि विपक्ष अपने अंतर्विरोधों से अब तक नहीं निबट पाया है। दूसरी बात विपक्ष मुद्दा तो सामने ला रहा है लेकिन इसके साथ अपना विजन नहीं ला पा रहा है। इस वजह से उसका कोई पैरलल नैरेटिव नहीं बन पा रहा।

चुनाव विश्लेषक यशवंत देशमुख कहते हैं कि मुद्दे दो तरह के होते हैं। एक, जीवन से जुड़े और दूसरे चुनाव में उठे। अक्सर दोनों मुद्दे अलग-अलग होते हैं। यशवंत देशमुख के अनुसार जीवन से सीधे जुड़े मुद्दों को चुनावी मुद्दों में तब्दील करने के लिए कई फैक्टर की जरूरत होती है। वे मिसाल देते हैं कि महंगाई या बेरोजगारी को मुद्दा बनाकर ही सरकार को नहीं घेरा जा सकता है। यह बताना होगा कि इसके लिए कैसे सत्ता पक्ष जिम्मेदार है। जैसा कि 2013 में यूपीए सरकार को लेकर बताया गया कि करप्शन के कारण हालात खराब हो गए। अभी के हालात के बारे में वह बताते हैं कि महंगाई तकलीफ दे रही है लेकिन लोगों को उम्मीद अभी भी है कि मौजूदा सरकार चीजों को ठीक कर सकती है। साफ है कि अगर इन मुद्दों पर चुनौती देनी है तो विपक्ष को सिर्फ शिकायत करने के बजाय विकल्प और विजन के साथ सामने आना होगा।

 सौजन्य से - नवभारत टाइम्स