प्रागैतिहासिक काल के समय की सबसे बड़ी खोज आग का आविष्कार था। इस खोज ने सभ्यता का रूप बदल गया। वैदिक युग में अग्नि को देवताओं में सबसे अधिक मेधावी और तेजस्वी माना गया है।
ऋग्वेद में सबसे पहला श्लोक आग, अग्नि को समर्पित किया गया था क्योंकि अग्नि के माध्यम से यज्ञ में प्रदान की जाने वाली आहुतियां देवताओं को प्राप्त होती है, परंतु अग्नि का कार्यभार किसने लिया हुआ है?
इस संबंध में देवी भागवत पुराण के नवे स्कंध में कथा कुछ इस प्रकार है:
प्राचीन समय में देवतागण अपने आहार के लिए ब्रह्मलोक गए। उन्होनें ब्रह्माजी से प्रार्थना की कि हमारे आहार की व्यवस्था कीजिए। हमें यज्ञ में प्रदान की गई हवि का अंश नहीं मिल रहा था? इस समस्या के समाधान हेतु ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण का ध्यान किया तब श्रीकृष्ण ने ब्रह्माजी को भगवती की आराधना करने का आदेश दिया।
ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर भगवती की अंशरूपा स्वाहा देवी उत्पन्न हुई। उनका श्रीविग्रह अत्यन्त सुन्दर, लावण्यमय और मनोहर था।
स्वाहा से ब्रह्माजी ने प्रार्थना किया कि आप अग्नि की परम सुन्दर दाहिका शक्ति बन जाइए क्योंकि आपके बिना अग्निदेव आहुतियों को भस्म करने में समर्थ नहीं है।
ज्ञानी जन समझ जाएंगे कि काम देवी कर रही है और नाम अग्नि देवता का हो रहा है।
ललिता सहस्रनाम के चौथे मंत्र में देवी की उत्पत्ति के विषय में कहा गया है,
चिदग्नि कुण्ड सम्भूता देव कार्य समुद्भवा।।_
देवी की उत्पत्ति चित् की अग्नि से देवताओं के कार्य को संपादित करने के लिए हुई। दुर्गा की उत्पत्ति में भी सभी देवताओं का तेज सम्मिलित हुआ जिससे एक एक विशाल पर्वताकार शक्तिपुंज उत्पन्न हुआ । चन्द्रमा के समान शीतल मुख वाली देवी के अग्निकुण्ड से उद्भव होने का प्रयोजन क्या है
देवी शब्द दिव धातु से बना है। इसका अर्थ प्रकाश है, जहां भी प्रकाश होगा वहां चिंगारी का होना अनिवार्य है।
मुंडक उपनिषद के अनुसार, अग्नि की सात जिह्वाएँ हैं।
काली-श्यामवर्णा, ‘कराली’-भयंकरी, ‘मनोजवा’-मन की गति के समान द्रुत वेगवाली, ‘सुलोहिता’-रक्तवर्णा, ‘सुधूम्रवर्णा’-धुएँ के सदृश वर्णवाली, ‘स्फुलिङ्गिनी’-स्फुर्लिगों को बिखेरने वाली, ‘विश्वरुचि’-सर्व-सुन्दरी।
ये सातों विशेषताएं किसी न किसी रूप में शक्ति में मिल जाती है। शायद यही कारण है कि शक्ति के साथ अग्नि की ज्वाला किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करा देती है, फिर चाहे वह अग्नि की ज्वाला सत्य की शक्ति से उत्पन्न सती को अपने में समेटने का माध्यम हो, या फिर, सत्य की शक्ति की परीक्षा का जैसे सीता, अथवा द्रौपदी जिनका एक अन्य नाम यज्ञसेनी है, क्योंकि वह यज्ञ अग्नि से उत्पन्न हुई थी।
माना यह भी गया है कि सीता का अग्नि रुप ही द्रौपदी के रुप में यज्ञ की अग्नि से प्रकट हुआ। सीता और द्रौपदी के कथा को छोड़ दिया जाए, फिर भी शक्ति की ज्वाला ‘स्वाहा’ ‘स्वधा’ रूप में प्रत्येक हवन कार्य में उपस्थित है। बिना स्वाहा बोले यज्ञ में दिया गया हविष्य देवताओं को नहीं पहुंचेगा और बिना स्वाधा बोले पितरों को। स्वाहा की भाँति स्वधा का निर्माण ब्रह्मा जी ने पितरों की प्रसन्नता के लिए किया।
देवी भागवत में कथा आई है कि सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने चार मूर्तिमान तथा तीन तेजः स्वरूप पितरों का सृजन किया उनका आहार भी सृजित किया।
इस प्रकार ब्रह्मा पितरों के लिए श्राद्ध आदि का विधान करके चले गए किन्तु ब्राह्मण जो श्राद्धीय पदार्थ अर्पण करते थे उन्हें पितरगण प्राप्त नहीं कर पाते थे।
क्षुधा से व्याकुल तथा उदास मन वाले सभी पितर ब्रह्माजी के पास गए और उन्होंने उन्हें अपनी पीड़ा बताई कि वे अर्पित श्राद्धीय पदार्थ को ग्रहण नहीं कर पा रहे थे। तब ब्रह्माजी ने एक मनोहर मानसी कन्या का सृजन किया। वह रूप तथा यौवन से सम्पन्न थी और उसका मुख सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान था।
ब्रह्माजी ने स्वधा को सन्तुष्ट पितरों को समर्पित किया और साथ में ब्रह्माजी ने उन्हें यह गोपनीय उपदेश दिया कि पितरों को कव्य पदार्थ अर्पण करते समय आपको अन्त में स्वधायुक्त मंत्र का उच्चारण करना है। शक्ति रूपा भगवती स्वधा को प्राप्त करके पितर गण, देवता तथा विप्र परम सन्तुष्ट हो गए तथा उनके सभी मनोरथ पूर्ण हो गए।
उसी प्रकार आज भी जिसे शक्ति मिल जाती है उसे जीवन में सब कुछ मिल जाता है। हां, यह बात अक्षरशः सत्य है कि शक्ति जहां होंगी वहां पर तीव्र मात्रा में क्रिया होगी। शक्ति का स्वभाव है हलचल उत्पन्न करना, जब सब कुछ शांत हो जाता है, निर्विकार, वह शिव की स्थिति है। परंतु शक्ति की क्रियाशीलता इस शांति में खलल डाल देती है।
इतिहास साक्षी है कि जिसके साथ शक्ति संगिनी रूप में रही उसके जीवन में अनेक प्रकार के उथल-पुथल हुए। किसी भी महापुरुष के जीवन चरित्र देख लीजिए, उसके जीवन में उतार-चढ़ाव के अनेक परिस्थितियां रहेंगी, परंतु इन सारे उतार-चढ़ाव के बीच उसके अंदर बाधाओं के पार जाने की प्रबल इच्छा शक्ति होती है।
हर कोई जानता है कि ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को एक विशेष शक्ति दी है जिसे प्रतिभा कहते हैं। दरअसल ‘भा’ का अर्थ भासित होना या चमकना है। अंग्रेजी में किसी व्यक्ति के संदर्भ में उसकी प्रतिभा के मंद पड़ जाने पर “loss in spark” शब्द का प्रयोग बहुत आसानी से इसे बता देता है।
प्रतिभा को चमकाने के लिए घनघोर तपस्या करना होता है, यह तब होगा जब मन के अंदर शक्ति की ज्वाला पूरी तरह से प्रज्वलित हो। शक्ति रुपी अग्नि जब अंदर धधकती है उसकी आंच हमारे द्वारा संपन्न किए गए कार्यों में कितना जोश और उत्साह भरा हुआ है इसमें दिखाई देता है। शक्ति की आंच को निरंतर कर्म के द्वारा जलाए रखा जाता है। एवं उसे प्रत्येक स्थिति में भय और आशंका से बचा कर रखना पड़ता है।
प्रागैतिहासिक काल का मनुष्य जिस ने आग की खोज की थी उससे हम बहुत आगे निकल आए हैं लेकिन एक चीज में उसमें और हम में कोई अंतर नहीं है। डर उसे भी था और हमें भी है। हमारा सबसे बड़ा भय आगामी कल का है। आने वाला कल कैसा होगा इसने हमें डरा कर रखा हुआ है।
कुछ इतना ही हम भविष्य से डरे रहते हैं कि हर व्यक्ति जो हमें आने वाले कल का आभास दिला सकता है या उसके बारे में सतर्क कर सकता है उसके प्रति समर्पित हो जाते हैं। परंतु ऐसा करते हुए हम अपने भीतर धधक रही शक्ति की अग्नि पर ठंडे पानी के छींटे मार देते हैं।
शक्ति की ज्वाला को अपने भीतर ज्वाला देवी की तरह जलाए रखने के लिए अपने विचारों के प्रति सतर्क और सजग बनना है। यह शरीर दुर्ग है और शक्ति उसका आंतरिक कवच। निरंतर श्रेष्ठ कर्मों की आहुति द्वारा इसकी अग्नि को प्रचंड करने वाले व्यक्ति के लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं बचेगा।