कहिए या प्रतिद्वंद्विता या अस्तित्व बचाने की लड़ाई, सच है कि यह प्रकृति में हर तरफ दिखता है। यही हमें लगातार बेहतर भी बनाता चलता है। कोई न कोई प्रतिद्वंद्वी हमारा जरूर होना चाहिए। मनॉपली किसी भी तरह की हो, जीवन को बहते पानी जैसा नहीं रहने देती। हालांकि पिछले कुछ हजार वर्षों से इस दुनिया में इंसान की मनॉपली कायम हो चुकी है। नतीजा हम इंसानी जीवन की सुख-सुविधाओं में बेहिसाब बढ़ोतरी और बाकी पूरी दुनिया की निरंतर बिगड़ती शक्ल – कटते जंगल, घटते भूजल स्तर, हवा में फैलते जहर, पानी में बढ़ते प्रदूषण – के रूप में देख भी रहे हैं। पर करें क्या? हम अगर सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति हैं तो इसमें हमारी क्या गलती?
क्या इसी अहंकार ने हमें खुद ही अपना एक नया प्रतिद्वंद्वी रचने को प्रेरित किया है? जेनरेटिव AI भले कहने को हमारी ही बनाई एक मशीन भर हो, यह खुद को लगातार बेहतर किए जा रही है और हमारे लगभग सारे काम हमसे ज्यादा अच्छे ढंग से कर दे रही है। यह ऐसा ही है जैसे नया आया एम्प्लॉयी आपसे कहे, ‘बॉस आप बस हुक्म करो, मैं करता हूं न आपका हर काम।’ और फिर धीरे-धीरे आपकी कोई जरूरत ही न रह जाए। अब यह हमें सोचने की भी जहमत नहीं दे रहा। इशारा भर करें तो नई तस्वीर, नया लेख, नई कहानी, नई नज्म हमारे सामने हाजिर कर देता है। तो क्या हम अमीरी की उस हास्यास्पद स्थिति में पहुंच रहे हैं जहां जॉगिंग के लिए भी नौकर रखने की कल्पना की जाती है?
पर अगला सवाल है कि मशीन से बनी कोई तस्वीर, AI की लिखी कविता हमारे अंदर उसी तरह के भाव पैदा कर पाएगी, हमें वही संतोष दे पाएगी जो किसी चित्रकार या लेखक की कृति देती है? हम हाथ में उंगलियों के बीच फंसी अपनी कलम से लिखें या कंप्यूटर/ लैपटॉप/ मोबाइल पर की दबाते हुए, जब तक कंटेंट हमारा है, तब तक उस पर इंसानी छाप है। लेकिन एक इशारे पर मशीन उपन्यास लिखने लग जाए तो वह उपन्यास चाहे जितना भी उम्दा हो, एक पाठक के तौर पर वह हमें कितना संतुष्ट करेगा? आखिर किसी उपलब्धि की अहमियत तो उसके इंसानी जुड़ाव की ही उपज होती है। तेज दौड़ने का हो या ऊंची कूद का, हर रेकॉर्ड मायने इसलिए रखता है कि वह इंसानी क्षमता की नई हद तय करता है। मूक फिल्मों के दौर से चलकर हम वहां पहुंचे हैं कि कैमरे में तकनीक का बड़े से बड़ा कमाल भी असंभव नहीं लगता। लेकिन वहां भी इंसान की कल्पना, उसकी रचनात्मकता को ही आकार लेते देखते हैं। खुशी आखिरकार उसी की होती है।
क्या ऐसा कोई दौर आएगा जब हम AI की कृतियों पर खुशी की वही पुलक महसूस करेंगे? अगर हां तो हमारी मनॉपली को सचमुच खतरा है। अगर नहीं तो यह अभी कायम रहने वाली है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स