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• Thu, 16 May 2024 1:26 pm IST


चुप करके सुनेंगे, तभी तो ठीक से बहस करेंगे


गधे ने एक बार आसमान की तरफ सिर उठाकर देखा तो लाल-लाल बादलों ने उसमें डर पैदा कर दिया। फिर उसने कभी ऊपर नजरें नहीं कीं। इस लिहाज से वह सही कह रहा था कि आसमान लाल रंग का होता है। लेकिन, घोड़ा इस बात पर अड़ा था कि आसमान नीला है। दोनों में से कोई हार मानने को तैयार न था। आखिर में बहस पहुंची राजा शेर के दरबार में। शेर ने फैसला गधे के हक में सुनाया और घोड़े को कोड़ों की सजा मिली। जब घोड़े ने अपना पक्ष रखना चाहा, तो शेर ने कहा कि तुम अपनी जगह ठीक हो, लेकिन गधे से बहस क्यों की?

आम बहस में यह खतरा रहता है कि कोई एक पक्ष हार जाए, कोई हार कर भी जीत जाए और किसी को सजा भुगतनी पड़ जाए। लेकिन, बहस अगर राजनीतिक हो, तो ये सारे खतरे करीब-करीब लुप्त हो जाते हैं। तब न पूरी तरह कोई सही होता है और न पूरी तरह गलत। बहस इस पर होती है कि कौन ज्यादा सही है। चूंकि मौसम चुनावों का है, तो ऐसे में राजनीतिक बहस और भी मौजूं हो जाती है।

सियासी बहस जब तक तर्क-वितर्क पर चलती रहे, कुतर्क में न फंसे, तब तक इससे बढ़िया टाइमपास कोई नहीं। इसमें वक्त भी कटता है और आनंद भी आता है। सामान्य तौर पर बहस को जोड़ लिया जाता है अनुशासन से। बच्चा जब मां-बाप से, जूनियर जब सीनियर से नाइत्तफाकी जाहिर करने की कोशिश करता है, तो उसे यही ताकीद मिलती है, बहस नहीं। लेकिन, राजनीतिक बहस इस दायरे से बाहर आती है। इसकी सबसे बड़ी USP ही है, दूसरों की बात से असहमति। यहां सामने वाले की हां में हां मिलाने की मजबूरी नहीं होती। आप अपनी थियरी रख सकते हैं, अपने विचार जाहिर कर सकते हैं। राजनीतिक बहस सलीका सिखाती है कि कैसे दूसरों से असहमत होते हुए उन्हें अपनी बातों से सहमत किया जाए।

ये बहसें होती हैं बैठकों में और इन बैठकों का कोई स्थायी ठिकाना नहीं होता। ट्रेन, बस, चाय-पान की गुमटी, घर या ऑफिस- कहीं भी दो या उससे ज्यादा लोग राजनीतिक बहस शुरू कर सकते हैं। ऐसी दो-चार बैठकी के बाद ही आपको लगने लगेगा कि आपके तर्क ज्यादा परिपक्व हो रहे हैं, आपको अपनी बात पर डटे रहने के लिए ज्यादा ठोस वजह मिलने लगी है और नए-नए विचार आ रहे हैं। यह कमाल बहस का है, जो दिमाग को घिसकर पैना कर देती है। चार लोगों के सामने बात रखने का मौका देती है, कॉन्फिडेंस बढ़ाती है।

बात से बात जोड़ना और बात से अपने मतलब की बात निकालना सिखाती है राजनीतिक बहस। जब तक एक पक्ष हार न माने, तब तक इसका अंत नहीं हो सकता और ऐसा अपवाद स्वरूप होता है जब कोई हार माने। तो सियासत पर छिड़ी एक बहस सैकड़ों मील लंबा रास्ता भी पार करा देती है। इसकी सबसे बड़ी खूबसूरती है कि आप किसी भी बहस का किसी भी समय हिस्सा बन सकते हैं, किसी भी पक्ष के साथ हो सकते हैं और किसी भी समय उस बहस से बाहर निकल सकते हैं।

राजनीतिक बहस धैर्य धरना सिखाती है। दूसरों को दम साधकर सुने बिना अच्छा बहसबाज नहीं बना जा सकता। विपक्ष के एक-एक तर्क पर गौर करना, उसकी काट तैयार करना और फिर उसे एक के बाद एक, संभलने का मौका दिए बिना तीर की तरह चलाना- यह सब राजनीतिक बहस में ही संभव है। इस दौरान खुशी के छोटे-छोटे मौके भी मिलते हैं, छोटी-छोटी जीत के रूप में। लेकिन, एक सीख भी छिपी है इस जीत में कि यह जीत हमेशा नहीं रहेगी, बिल्कुल हार की तरह। आप जब अपने पर मुग्ध हो रहे होंगे, तभी सामने वाला जवाब तलाश कर आपके तर्क को ढेर कर सकता है। तो राजनीतिक बहस ज्यादा सचेत बनाती है।

और इसकी सबसे जरूरी शर्त, जैसे राजनीति में कहते हैं कि कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, वैसे ही बहस में उतरते हुए भी उस सीमा को न लांघें जिससे कड़वाहट पैदा हो। अगर चाहते हैं कि बैठकी यूं ही चलती रहे, बात होती रहे, तो जीत-हार का ख्याल दिल से निकाल कर बस बहस करते जाइए।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स