दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रफेसर जी.एन. साईबाबा को बीते मार्च महीने में बॉम्बे हाई कोर्ट ने बरी कर दिया। साईबाबा को UAPA के तहत माओवादी गतिविधियों के लिए सजा सुनाई गई थी। उन्होंने करीब 10 साल जेल में गुजारे। अपने फैसले में हाई कोर्ट ने कहा कि साईबाबा के खिलाफ कोई आरोप साबित नहीं किया जा सका। ऐसे कई और मामले हैं, जिनमें लोगों को बेवजह बरसों जेल में गुजारना पड़ा।
माफी और मुआवजा : लॉ कमिशन की रिपोर्टें भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि भारत में यह चलन आम है। इसकी कीमत लगभग पूरी तरह से आरोपी को चुकानी पड़ती है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे मुल्कों में, जेल भेजे जाने वाले बेकसूर लोग मुआवजे का दावा कर सकते हैं। हिंदुस्तान में जो लोग ऐसी कानूनी प्रक्रिया से गुजरते हैं, उन्हें मुआवजा तो दूर, माफी तक नहीं मिलती।
विचाराधीन कैदी : नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के 2022 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत की 1,330 जेलों में बंद करीब 75% लोग विचाराधीन कैदी हैं। इनमें से करीब आधे की उम्र 18 से 30 साल के बीच है। कुल 3.26 लाख कैदी IPC के तहत दर्ज मुकदमों का सामना कर रहे हैं।
बहुत कम को सजा : 2022 के आंकड़े यह भी बताते हैं कि IPC के तहत जुर्मों में करीब 35% को ही सजा मिल पाती है। मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले के मोहद से 2017 में गिरफ्तार किए गए 17 लोगों की ही मिसाल लीजिए। उनका कथित जुर्म हिंदुस्तान के खिलाफ ICC चैंपियंस ट्रॉफी फाइनल में पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाना था। वे सब मुल्जिम के तौर पर छह साल से ज्यादा वक्त तक जेल में रहे। बाद में डिस्ट्रिक्ट ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए उन्हें बरी कर दिया कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला।
पुलिस को मिले ट्रेनिंग : महाराष्ट्र के कोल्हापुर के एक कॉलेज में पढ़ाने वाले कश्मीरी प्रो. जावेद अहमद हजाम ने अगस्त 2022 में दो वट्सऐप स्टेटस पोस्ट किए। 5 अगस्त को उनके स्टेटस में कश्मीर के खास दर्जे को खत्म करने के विरोध में ‘काला दिन जम्मू और कश्मीर’ लिखा था। 14 अगस्त को स्टेटस में लिखा था- ‘आजादी मुबारक पाकिस्तान’। उन पर वैमनस्य को बढ़ावा देने का इल्जाम लगाया गया। हजाम ने करीब एक महीना जेल में गुजारा और दो साल तक कानूनी लड़ाई लड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि हर किसी को अनुच्छेद 370 को खत्म करने और जम्मू और कश्मीर की हैसियत में तब्दीली की आलोचना करने का हक है। अदालत ने बोलने और राय जाहिर करने की बुनियादी आजादी पर पुलिस को ट्रेनिंग देने की भी जरूरत बताई।
जमानत की मुश्किल : UAPA में जमानत मिलना दूसरे क्रिमिनल मामलों के मुकाबले ज्यादा मुश्किल है। इसके तहत 2016 और 2020 के बीच 24,000 से ज्यादा लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए थे। राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में सामने आए आंकड़ों से पता चला है कि इनमें सिर्फ 212 लोगों को सजा सुनाई गई, जबकि 386 को बरी कर दिया गया। इलाहाबाद और बॉम्बे हाई कोर्ट में रह चुके जस्टिस अभय ठिपसे (रिटायर्ड) ने कहा कि ऐसे मामलों में जमानत नहीं दी जा रही है और जज भी जमानत देने से कतरा रहे हैं।
मिले मुआवजा : ऐसे पीड़ितों के लिए मुआवजे की कानूनी व्यवस्था करने का सुझाव 2018 की लॉ कमिशन की रिपोर्ट में भी दिया गया था। लेकिन यह सिर्फ सुझाव ही रहा। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस बी.एस. चौहान कमिशन ने भी इंसाफ की नाकामी के शिकार लोगों को मुआवजा देने के लिए एक कानून और हर जिले में खास फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की सिफारिश की। कमिशन ने उन मामलों में 25,000 से 50,000 रुपये के बीच अंतरिम मुआवजे का सुझाव दिया, जहां किसी शख्स ने छह महीने से ज्यादा वक्त जेल में गुजारा हो। मगर जस्टिस ठिपसे के मुताबिक, समाज में भी इस मसले को लेकर ज्यादा गंभीरता नहीं है। लोगों को लगता है कि कोई अगर बेकसूर है तो उसका बरी किया जाना ही काफी है। ऐसे में सिस्टम पर भी ज्यादा कुछ करने का दबाव नहीं बन रहा।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स