आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को ‘सेमीफाइनल’ बताया जा रहा है, क्योंकि ये लोकसभा चुनाव से महज छह महीने पहले हो रहे हैं। लेकिन देखा जाए तो ये लोकसभा चुनाव की संभावनाओं से ज्यादा विभिन्न पार्टियों के आंतरिक समीकरणों को प्रभावित करने वाले हैं। 2018 में बीजेपी सीधे मुकाबले वाले तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़- में कांग्रेस से हार गई थी। लेकिन बमुश्किल छह महीने बाद हुए लोकसभा चुनाव में उसने बाजी पलट दी। तब तीनों राज्यों की कुल 65 लोकसभा सीटों में से उसने 61 पर कब्जा कर लिया था। इसका मतलब है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वोटरों की प्राथमिकता बदल गई थी।
ओडिशा का अनुभव
मतदाताओं की प्राथमिकता में इस फर्क की सबसे अच्छी मिसाल ओडिशा में दिखी थी, जहां 2019 में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। बीजू जनता दल (BJD) ने 146 सीटों वाली विधानसभा में 112 सीटें जीतकर तब लगातार पांचवीं बार सत्ता हासिल की, लेकिन लोकसभा चुनाव में 21 में से 12 ही सीटें वह जीत पाई। वहीं, बीजेपी ने 8 सीटें झटक लीं। विधानसभा और लोकसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न देखा जाए तो BJD से बीजेपी की ओर वोटों का करीब 2 फीसदी का शिफ्ट हुआ जबकि दोनों चुनाव एक साथ हुए थे।
इसलिए चुनाव विश्लेषकों का विधानसभा चुनावों के नतीजों को राष्ट्रीय फलक पर जांचना-परखना तो ठीक है, लेकिन पिछले एक दशक में ऐसी पहल की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं।
राष्ट्रीय चुनावों को अब राज्यों के चुनाव नतीजों के कुल योग के तौर पर नहीं देखा जा सकता।
राज्यों के चुनाव जरूर वैसे आधार मुहैया कराते हैं, जिन पर पार्टियां खुद को दोबारा खड़ा कर सकती हैं।
नब्बे और दो हजार के दशक में बीजेपी ने खुद को गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और कुछ हद तक राजस्थान में अपने अच्छे राज्यस्तरीय प्रदर्शनों की बदौलत ही खड़ा किया।
2004 और 2009 के लोकसभा चुनावों में मिली शिकस्त के बावजूद इन राज्यों के चुनाव नतीजों ने बीजेपी को मैदान में बनाए रखा।
आजकल कांग्रेस अपनी ऐसी ही पुनर्वापसी सुनिश्चित करने का प्रयास कर रही है। खासकर हिमाचल प्रदेश में पिछले साल और इस साल कर्नाटक में हुई विजय के बाद।
जाहिर है, पांच राज्यों के ये चुनाव दोनों दलों के लिए अहम हैं। फिर भी इनका सबसे ज्यादा असर दोनों दलों के क्षत्रपों की भूमिका पर पड़ने वाला है। इसी का दूसरा पहलू है पार्टी में हाईकमान की भूमिका और उसका नियंत्रण।
बीजेपी की बात करें तो वहां मामला उतना उलझा हुआ नहीं है। कारण यह है कि नरेंद्र मोदी की देशव्यापी अपील है जिसका असर न केवल पार्टी के अंदर बल्कि पूरे NDA गठबंधन में भी दिखता है। इसी असर की बदौलत पार्टी पीढ़ीगत बदलाव की तैयारी कर सकी। इसी के तहत कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा और कुछ अन्य नेताओं को विधानसभा चुनाव से कुछ ही पहले हटाया गया। इस तरह का बदलाव कर्नाटक में काम नहीं आया, लेकिन उत्तराखंड और गुजरात में इसके अच्छे नतीजे देखने को मिले। वैसे इस बार बीजेपी बड़े बदलाव करने से बचती दिख रही है, लेकिन उसने किसी राज्य में मुख्यमंत्री प्रत्याशी भी घोषित नहीं किया है। इसका मतलब है कि आगे के हालात बहुत कुछ सीटों की संख्या पर निर्भर करेंगे। स्पष्ट बहुमत की स्थिति में राष्ट्रीय नेतृत्व का जोर बढ़ सकता है, लेकिन जीत-हार का अंतर कम होने पर लोकल लीडरशिप की भूमिका बढ़ जाएगी।
हार का अंतर कम होने से मध्य प्रदेश में 2018 में बीजेपी 22 कांग्रेसी विधायकों के इस्तीफे के बाद सत्ता पर कब्जा जमा पाई थी। इन इस्तीफों के चलते कई सीटों पर उपचुनाव कराने पड़े, जो बीजेपी के पक्ष में गए। नतीजा यह कि शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद का एक और कार्यकाल मिल गया क्योंकि वह ऐसे इकलौते नेता थे जो सभी गुटों को साथ लेकर चल सकते थे। जाहिर है, ये चुनाव शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया जैसे नेताओं के लिए खासे अहम हैं, जिनकी भूमिका इस बात पर निर्भर करेगी कि उनके पाले में कितने विधायक होते हैं।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है तो वहां आलाकमान को प्रदेश इकाइयों में चल रही गुटबाजी का फायदा मिलता रहा है।
राजस्थान में अगर कांग्रेस सरकार चलती रही है तो उसके पीछे अशोक गहलोत की राजनीतिक कुशलता है। लेकिन यह बात भी सही है कि उन्हें लगातार सचिन पायलट पर नजर बनाए रखनी पड़ी जिनकी दिल्ली तक सीधी पहुंच है।
मध्य प्रदेश में यह मॉडल उलटा पड़ गया लेकिन छत्तीसगढ़ में बहुत अच्छा चला। वहां टीएस सिंहदेव की मौजूदगी के कारण मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर लगातार अंकुश बना रहा।
कर्नाटक में सीएम सिद्दारमैया और डेप्युटी सीएम डीके शिवकुमार के बीच भी कुछ ऐसा ही समीकरण बना हुआ है।
लेकिन बघेल, गहलोत या कमलनाथ जीतते हैं तो भी आंतरिक समीकरण बदल जाएंगे। जीत के बाद वे ज्यादा मजबूत होकर उभरेंगे और चाहेंगे कि पार्टी में केंद्रीय स्तर पर ऐसे बदलाव हों जिससे उनके अपने गढ़ सुरक्षित रहें। जाहिर है, बड़ी उथलपुथल की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि कांग्रेस में राष्ट्रीय और प्रदेश स्तर के बुजुर्ग नेता जाते-जाते भी अपनी छाप छोड़ना चाहेंगे।
क्षेत्रीय दलों से रिश्ता
ये चुनाव यह भी बताएंगे कि कांग्रेस कितना मजबूत होकर उभरती है। इसी से INDIA गठबंधन के अंदर क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस के बीच रिश्तों का स्वरूप भी तय होगा। इस लिहाज से तेलंगाना चुनावों पर खास नजर रहेगी क्योंकि इससे यह पता चलेगा कि कांग्रेस की मजबूती क्षेत्रीय दलों के लिए कितना बड़ा खतरा बनने वाली है। दिलचस्प बात यह कि कांग्रेस की यह मजबूती बीजेपी को संभावित सहयोगी भी मुहैया करा सकती है। इसके उलट, कमजोर कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के लिए ज्यादा सुविधाजनक होगी।
साफ है कि इन चुनाव नतीजों से काफी हद तक यह तय होगा कि पार्टियां गठबंधन को कितनी अहमियत देती हैं और यह भी कि उनका गठबंधन को लेकर रवैया कैसा रहता है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स