भारत में हिंदी पखवाड़ा बीत गया होगा लेकिन विदेश में रहने वाले भारतीयों का हिंदी और भाषा के साथ संघर्ष चलता ही रहता है। दक्षिण भारत के लोग आम तौर पर घरों में अपनी मातृभाषा और अंग्रेजी बोलते हैं। उत्तर भारत के अधिकतर लोग हिंदी को अपनी मातृभाषा मान चुके हैं, जबकि ये उनकी मातृभाषा है नहीं। मेरी भी मातृभाषा हिंदी नहीं है, लेकिन मैंने जीवन का लंबा समय हिंदी की नौकरी में काटा है। अमेरिका आने के बाद हिंदी बोलना करीब-करीब छूट गया। हिंदी बस टेलीफोनिक बातचीत में ही रह गई। घर में भी अंग्रेजी में ही बात होती है।
जब हमारा बच्चा बोलने लगा, तो हमने तय किया कि घर में हिंदी में ही बातचीत करेंगे। सोचा था कि हमारा बच्चा हिंदी बोलेगा। मगर हालत यह है कि हिंदी में हम जो भी कहें, हमारी सारी बातें वह समझ लेता है पर जवाब अंग्रेजी में ही देता है। इसकी एक वजह यह भी है कि हमारे आसपास हर शख्स अंग्रेजी ही बोलता है। फिर जबसे बच्चा स्कूल जाने लगा है, अंग्रेजी ही उसकी भाषा बन गई है। मुझे नहीं पता कि उसकी मातृभाषा क्या होगी? मैथिली, जो मेरी मातृभाषा है और जिस भाषा में दादी-दादा उससे बात करते हैं या हिंदी, जिसमें हम लोग उससे संवाद करते हैं या फिर अंग्रेजी, जिसमें वह हम सबसे बात करता है?
घर पर हिंदी में बात करने का मुख्य मकसद बच्चे को हिंदी सिखाना था। बच्चे ने पहले तो हिंदी बोलने से सीधे इनकार कर दिया। लेकिन धीरे-धीरे नकल करके अब कुछेक बातें हिंदी में कहने लगा है। हां, इसे कहने में उसने अपनी नई भाषा ईजाद कर ली है, जो हम पति-पत्नी तो समझ जाते हैं, पर बाहर के लोग शायद ही समझें। मसलन, एक दिन उसके हाथ में दर्द था तो उसने कहा- ‘पापा, माय हैंड इज दर्दिंग!’ इसमें अंग्रेजी-हिंदी का ऐसा मिश्रण था, जो हम ही समझ पाए। चार साल का बच्चा, जिसका शब्द भंडार अभी कम है और जो लगातार घर में दो से तीन भाषाएं सुन रहा है- उसकी यह अपनी भाषा है।
मजेदार यह भी है कि मेरे माता-पिता हिंदी नहीं बोलते। वे अपने पोते से मैथिली में बात करते हैं। दादा-दादी और पोता हफ्ते में तीन-चार बार बीस-बीस मिनट बात करते हैं। उधर से मैथिली, इधर से अंग्रेजी। अक्सर दादा-दादी को उसकी बात समझ में नहीं आती है, तो वह अपने एक्शन से समझाने की कोशिश करता है। इस तरह उनके बीच लंबी बातचीत होती है, जिसमें हम लोग दखल नहीं देते हैं। शायद इसी का नतीजा है कि हम अगर मैथिली में उसे कुछ कहें, झट समझ जाता है।
जब वह छोटा था, तो हमारी एक प्रफेसर लगातार घर आया करती थीं। वह उससे बंगाली में बात करती थीं। उन दिनों तो वह बंगाली भी समझ लेता था, अब शायद न समझे। भारत में हर साल हिंदी पखवाड़े के दौरान भाषा की बहस देखता हूं तो भाषा के साथ अपना रोजमर्रा का संघर्ष याद आता है। क्या है अब मेरी भाषा? मैंने हिंदी मीडियम से पढ़ाई की। फिर ग्रैजुएशन और एमए इंग्लिश मीडियम से किया। नौकरी हिंदी में ही की और अब पिछले पांच साल से अधिकतर अंग्रेजी और कभी-कभार हिंदी में काम करता हूं। मैथिली जरूरत पड़ने पर ही बोलता हूं, और बहुत जरूरत पड़ने पर लिख सकता हूं। बदलते जमाने में मातृभाषा की अवधारणा भी जटिल हुई है। इसे लेकर बहुत इमोशनल नहीं होना चाहिए। ऐसा मुझे लगता है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स