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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 2 Aug 2023 3:46 pm IST


क्या बदलें, क्या छुपाएं


IIT बॉम्बे जातिगत पूर्वाग्रहों का एक तोड़ लेकर आया है। उसने अपने स्टूडेंट्स से कहा है कि वे एक-दूसरे से जी (एडवांस्ड) रैंक या गेट स्कोर के बारे में पूछताछ न करें। न ही कोई ऐसा सवाल करें, जिससे किसी स्टूडेंट की जाति और उससे जुड़े पहलू उजागर होते हों। इस गाइडलाइन की जरूरत संस्थान ने इसलिए महसूस की क्योंकि पिछले दिनों फर्स्ट ईयर स्टूडेंट दर्शन सोलंकी की खुदकुशी का मामला सामने आने के बाद से उसकी काफी किरकिरी हो रही थी। हालांकि कोई भी संस्थान अगर हालात सुधारने की दिशा में कोई पहल करता है तो उसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। लेकिन सवाल तो बना रहता है कि क्या ऐसे सांकेतिक कदमों से ऐसी गंभीर समस्या को हल किया जा सकता है।

एक जमाना था कि समाज के पढ़े-लिखे लोगों ने अपने नाम से जातिसूचक उपनाम हटाने शुरू कर दिए थे। वे बच्चों के भी ऐसे नाम रखते थे, जिनसे जाति का पता न चले। तब इसे एक प्रगतिशील कदम माना जाता था। हालांकि उसके पीछे जातिगत सोच के नुकसानों से बचने-बचाने का भाव भी हुआ करता था। जरूरी नहीं कि ऐसे नुकसान अगड़ों के हाथों पिछड़ों को ही झेलने पड़ें। खुद अगड़ी जातियों में भी अपनी जाति को श्रेष्ठ और दूसरों को हीन मानने की प्रवृत्ति थी। यानी किसी ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत या कायस्थ प्रत्याशी को भी पैनल मेंबर के जातीय पूर्वाग्रह का नुकसान हो सकता था। लेकिन इसमें शक नहीं कि जातिगत सोच का दंश मुख्य रूप से पिछड़ों को ही झेलना होता था।

बहरहाल, जातीय उपनाम छोड़ने की कुछ दशक पहले की इस प्रवृत्ति के उलट अब उसे हर संभव तरीके से रेखांकित करने की सोच दिख रही है। यह अक्सर फोर-वीलर और टू-वीलर वाहनों में आगे या पीछे राजपूत, गुर्जर, ब्राह्मण जैसे शब्दों के रूप में झलक जाती है। यही पलटती हुई प्रवृत्ति हमें महिलाओं के मामले में भी दिखती है। एक वक्त था जब पढ़ी-लिखी और जागरूक महिलाएं शादी के बाद सरनेम बदलना न केवल गैर-जरूरी मानने लगी थीं बल्कि इसे जातिवादी और पुरुषवादी सोच के विस्तार के रूप में लेते हुए इससे मुक्त होना जरूरी बताती थीं। इसका उलटा रूप अब हमें ऐश्वर्या राय बच्चन और करीना कपूर खान जैसे नामों में दिखता है, जिसमें दोनों तरफ की पारिवारिक पहचान का बोझ उठाने और इसमें गौरवान्वित महसूस करने का भाव निहित है। मगर इसी का दूसरा और ज्यादा विचारोत्तेजक पहलू हाल ही में आई वेब सीरीज ‘दहाड़’ में दिखा। उसमें लेडी पुलिस ऑफिसर अंजलि भाटी (सोनाक्षी सिन्हा) अंत में आकर पिता द्वारा बदले गए अपने जातिगत सरनेम को हटाकर पुराना जातिगत (दलित) सरनेम वापस हासिल करती है।

इन सबकी व्याख्या हम अपने-अपने हिसाब से कर सकते हैं, लेकिन शायद एक निष्कर्ष को नहीं नकार सकते कि गुलामी के निशान मिटाकर हम गुलामी की सोच नहीं खत्म कर सकते। उससे आंख मिलाकर लड़ना और उसे हराना पड़ता है, चाहे इसमें सौ साल लगें या हजार साल।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स