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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 15 Apr 2022 1:45 pm IST


भारत, अमेरिका की दोस्ती और गहरी हो


चाइनीज गूंगे-बहरे भी हो सकते हैं। तभी तो चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने अपनी हालिया यात्रा के दौरान पाकिस्तान और भारत में जो बयान दिए, उसमें जमीन-आसमान का फर्क था। पाकिस्तान में जहां उन्होंने इस्लामिक देशों के संगठन के कश्मीर पर दिए बयान से सहमति जताई वहीं भारतीय प्रतिनिधियों से बातचीत में कहा कि सीमा विवाद को फिलहाल भुला देना ही ठीक होगा। अमेरिका ने भी इधर चीन जैसी ही एक गलती की। बाइडन सरकार के डेप्युटी एनएसए (राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) दलीप सिंह अचानक दिल्ली आ धमके। यहां उन्होंने रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों की जानकारी दी। यह बताया कि उनका भारत पर क्या असर हो सकता है? लगे हाथ यह भी कह गए कि अगर भारत ने रूस के साथ व्यापार नहीं घटाया तो उसका अंजाम भुगतना पड़ेगा। दलीप सिंह के इस बयान से हाल के हफ्तों में दोनों देशों की ओर से रिश्तों में बेहतरी की जो कोशिश हुई थी, उस पर पानी फिर गया।

यूक्रेन पर नहीं थी तैयारी
यह बात सही है कि रूस-यूक्रेन युद्ध कोई भारत की जंग नहीं है, लेकिन सच यह भी है कि इसे लेकर भारतीय पक्ष पूरी तरह से तैयार नहीं था। अब अगर यूक्रेन पर हमले से पहले व्लादिमार पुतिन की बयानबाजी को देखें तो उससे बहुत सारे संकेत मिल रहे थे। पुतिन ने कहा था कि यूक्रेन का अलग राष्ट्र के रूप में वजूद उन्हें मंजूर नहीं है। पुतिन ने यह भी कहा कि नैटो यूक्रेन के जरिये रूस की दहलीज तक पहुंचने की तैयारी कर रहा है। तब कई देशों को लग रहा था कि यूक्रेन की सीमा पर रूस अपनी फौज इसलिए इकट्ठी कर रहा है क्योंकि वह इसके जरिये नैटो के साथ अपने फायदे के लिए सौदेबाजी करना चाहता है।

भारत संयुक्त राष्ट्र में इस युद्ध को लेकर लाए गए 12 प्रस्तावों पर वोटिंग से बाहर रहा है, लेकिन यह भी सच है कि इस बीच उसके रुख में काफी बदलाव आया है। उसकी वजह यह है कि इस बीच रूस ने यूक्रेन में जो किया है, उसे सही ठहराना मुश्किल हो गया है। पिछले गुरुवार को भारत ने संयुक्त राष्ट्र में लाए जिस प्रस्ताव पर वोटिंग से बाहर रहने का फैसला किया, वह एक तरह से रूस का विरोध था। यूक्रेन में रूस की कार्रवाई से भारत नाराज है। पिछले हफ्ते जब रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव भारत आए थे, तब उन्हें इस बारे में बताया गया। यही वजह थी कि जो लावरोव आमतौर पर क्वाड और हिंद-प्रशांत पर बयानबाजी करते रहते हैं, वह इस यात्रा में इन मुद्दों को लेकर कुछ नहीं बोले।

युद्ध की वजह से रूस के साथ हथियारों, खाद, हीरों और तेल-गैस का व्यापार भी प्रभावित हो सकता है। उसकी वजह यह है कि इनकी ढुलाई के लिए अंतरराष्ट्रीय इंश्योरेंस नहीं मिलने से ये सौदे कामयाब नहीं रह जाएंगे। अगर आप प्रतिबंधों को लेकर रूस और पश्चिमी देशों की बयानबाजी को रहने भी दें तो मार्केट फोर्सेज की वजह से इस तरह से सौदे पूरे नहीं किए जा सकेंगे। ऐसा ईरान और वेनेजुएला के मामले में दुनिया पहले ही देख चुकी है। सच पूछिए तो रूस के युद्ध के लिए पैसा आज यूरोप और चीन के साथ किए जा रहे सौदों से आ रहा है। इस साल भारत की रूस से तेल-गैस की खरीदारी उसकी कुल जरूरत के 2 फीसदी तक भी नहीं पहुंचेगी, जबकि अमेरिका के साथ इसके 11 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद है।

यहां एक यह सवाल उठता है कि यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर भारत-अमेरिका के रिश्तों पर कितना असर हुआ है? इस सिलसिले में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का बयान महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने भारत के रुख को ‘कुछ हिला हुआ’ बताया था। लेकिन बुनियादी रूप से देखें तो भारत और अमेरिका के हित जुड़े हुए हैं। यह बात सही है कि यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत ने एक हद तक रूस का साथ दिया है, लेकिन भारत में ऐसा मानने वालों की भी कमी नहीं है कि रूस ने खुद को आने वाले वक्त के लिए चीन का जूनियर पार्टनर बना लिया है। चीन, रूस का साथ भी नहीं छोड़ेगा क्योंकि दोनों का दुश्मन अमेरिका है। इसी वजह से भारत और रूस के बीच दूरियां बढ़ेंगी।

अमेरिका को भी समझना चाहिए कि जब वह अपने दुश्मनों पर सख्ती करता है तो उसकी कीमत भारत को चुकानी पड़ती है। पहले ईरान और अब रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों में यही हो रहा है। अफगानिस्तान से जब अमेरिकी फौज अचानक चली गई तो वह भी भारतीय हितों के मुताबिक ठीक नहीं था। इन मामलों से ना सिर्फ भारत की इकॉनमी को नुकसान हुआ बल्कि सामरिक लिहाज से भी यह ठीक नहीं है। भारत को भी यह देखना चाहिए कि दूसरे देशों के साथ उसके जो रिश्ते हैं, उनसे आने वाले वक्त में उसे कोई परेशानी तो नहीं होगी। भारत को यह बात स्पष्ट करनी होगी कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में उसका रुख क्या है और वह किन देशों के साथ सहज महसूस करता है। हम लंबे समय से एक तिराहे पर खड़े हैं। इसे बदलना होगा।

भारत की चिंता करे यूएस
भारत की इकॉनमी पश्चिम केंद्रित हो रही है, जिसकी शुरुआत 1991 के आर्थिक सुधारों से हुई थी। लेकिन भारत के सुरक्षा हितों को लेकर पश्चिम ने कभी खास चिंता नहीं दिखाई। ना ही हथियारों के मामले में उनसे बहुत मदद मिली। यह हाल तब है, जबकि भारत इसके सभी बुनियादी समझौतों में शामिल है। इन सबके बीच अगर आज अमेरिका भारतीय रुख की आलोचना कर रहा है तो उसे ठीक नहीं कहा जा सकता। अमेरिका और भारत को आपसी रिश्तों की गहराई से समीक्षा करनी चाहिए। उसे और मजबूत बनाना चाहिए। भारत को औकस टेक्नॉलजी पार्टनरशिप का हिस्सा बनाकर अमेरिका इसकी शुरुआत कर सकता है। इसके साथ, भारत को भी अमेरिका पर अधिक भरोसा करना होगा। यह कहने से काम नहीं चलेगा कि भारत विदेश नीति को लेकर अलग ही लीक पर चलता रहेगा। भारत और अमेरिका दोनों को ही पता है कि असली दुश्मन चीन है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स