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DevBhoomi Insider Desk
• Tue, 28 Mar 2023 12:20 pm IST


रमजान या रमादान


रमजान का महीना शुरू हो चुका है। कुछ लोग करेक्ट करना चाहेंगे कि इसे रमजान नहीं, बल्कि रमादान कहते हैं। भारत में फारसी के शब्द रमजान की जगह अरबी शब्द रमादान कैसे आया, इसकी बड़ी दिलचस्प कहानी है। यह कहानी उर्दू के जन्म से शुरू होती है और हिंदुस्तान के बंटवारे से होती हुई एक तानाशाह की लाठी पर जाकर टिक जाती है। उर्दू के जनक माने जाने वाले अमीर खुसरो के वालिद फारसी थे। उत्तर प्रदेश में अब जो एटा जिला है, उसी के एक गांव में उन्होंने एक हिंदू महिला से शादी की थी। वहां चलती थी ब्रजभाषा, जो उन दिनों साहित्य की प्रमुख भाषा थी। इसीलिए खुसरो की ‘जे-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल दुराय नैनां बनाए बतियां’ जैसी गजल में आपको जितनी फारसी मिलती है, लगभग उतनी ही ब्रजभाषा भी मिलती है। इसके बाद उस्ताद की कलम से धीमे-धीमे जो उर्दू बनी, उसमें जितना हिस्सा वालिद का रहा, उतना ही मां का भी रहा, बल्कि ‘काहे को ब्याहे बिदेस, अरे लखिय बाबुल मोरे’ जैसे गीत याद करें तो मां का हिस्सा ज्यादा ही रहा। रमजान ऐसे ही आया एक शब्द था, जो था तो फारसी का, मगर हिंदवी में कुछ ऐसा घुला कि इसी मिट्टी का हो गया।

तकसीम के वक्त पाकिस्तान ने अपनी राष्ट्रभाषा उर्दू बनाई। उर्दू अदब के उस्ताद जमील गुलरेज हैरत जताते हैं कि जाने क्यों मोहम्मद अली जिन्ना ने ऐसा किया, जबकि पाकिस्तान में उर्दू बोलने-लिखने वाला तो कोई था ही नहीं! पंजाबियों, सिंधियों, पख्तूनों या फिर पठानों का उर्दू से क्या लेना-देना? पाकिस्तान के मशहूर लेखक अनवर मकसूद कहते हैं कि उर्दू का पाकिस्तान में वही हाल है जो अंग्रेजी का हिंदुस्तान में- आती किसी को नहीं, बोले सभी जा रहे हैं! वैसे रमजान और रमादान का चक्कर शुरू हुआ 1980 में, जब जनरल जिया उल हक पाकिस्तान के तानाशाह बने। तब उनकी अरब देशों से नजदीकी कायम हुई। नजदीकी का सबूत देने के लिए उन्होंने उर्दू में तोड़फोड़ शुरू की। पहला फरमान जारी किया कि अब खुदा हाफिज नहीं बोलना, अल्लाह हाफिज ही बोलना है। जमील गुलरेज कहते हैं कि शायद जिया उल हक के मुताबिक खुदा किसी और का था!

इसी तर्ज पर आगे चलकर उन्होंने फरमान जारी किया कि रमजान की जगह रमादान बोला जाएगा। अरबी में फारसी का ‘ज्वाद’ अक्षर ‘द’ बन जाता है, इसलिए रमजान बदलकर रमादान हो गया। यह सब जिया उल हक ने डंडे के जोर पर कराया। भाषा में जिया साहब के डंडे का जोर कुछ ऐसा चला कि फारसी का ‘मुकाम’ बदलकर ‘मकाम’ बन गया और ‘सिज्दा’ की जगह ‘सजदा’ किया जाने लगा। और तो और, खुद जिया उल हक की ‘हुकूमत’ बदल गई और पाकिस्तान उसे ‘हकूमत’ पुकारने लगा। उर्दू पर चला यह डंडा पिछले बीस-तीस सालों में हिंदुस्तान तक पहुंच चुका है, जिसके चलते यहां भी अब बहुत लोग रमजान को रमादान बोलने लगे हैं, सिज्दे की जगह सजदा करने लगे हैं। चुटकी लेते हुए जमील गुलरेज पूछते हैं, क्यों न अब ‘जिया उल हक’ को ‘दिया उल हक’ ही कहा जाए?

सौजन्य से  : नवभारत टाइम्स