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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 7 Oct 2022 2:57 pm IST


बहुत याद आएगा 'कोशी का घतवार'


कहानी को ओढ़ने, दशाने और बिछाने वाला हमारे बीच नहीं रहा। कहानी की दुनिया खाली-खाली सी हो गई है। नयी कहानी का एक अध्याय खत्म हो गया। हमें, आपको कहानी से रूबरू कराने वाली खुद कहानी बन गए। नई कहानी में और नयापन देने वाले, सजाने और संवारने वाले शेखर जोशी हमारे बीच से अलविदा हो गए हैं। कहानी को उन्होंने बहुत कुछ दिया। एक कुशल कुंभकार की तरह उसे गढ़ा और तराशा। एक ख़ास पहचना दिलाई। नई कहानी के कथाशिल्प को उन्होंने और मजबूत किया एवं उसे उर्वर बनाया। उनकी कहानियों का कई विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ।

जोशी की कहानियों में पहाड़ के जीवन का यथार्थ भी दिखता है। स्वाधीनता आंदोलन और द्वितीय विश्व युद्ध की छाप भी कहानियों में दिखती है। उनकी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ में पहाड़ के जीवन मूल्य दिखते हैं। उन्होंने कुछ समय पूर्व देव प्रकाश चौधरी से एक साक्षात्कार में बताया था कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पहाड़ों से भारी संख्या में फौज के जवान लड़ने जा रहे थे। उन्हें विदा करते समय परिजनों जो हालात हमने देखी उससे विचलित हो गया। काफी लोग उसमें से लौटकर नहीं आए।

फौजियों और उनके परिवार की पीड़ा को कथानक का आधार बना उन्होंने ‘राजे खत्म हो गए’ जैसी कहानी लिखी। उनकी कहानियां जमीन से जुड़ी और यथार्थ के बेहद करीब होती हैं। उन्होंने चेखव, तुर्गनेव, मैक्सिम गोर्की, आस्त्रोवस्की, चंगीज आइत्मातोव के उपन्यास, माइकोवस्की, नाजिम हिकमत और निकोला वाप्सरोव के हिंदी अनुवाद को खूब पढ़ा। जोशी के बारे में कहा जा सकता है वह जितने बड़े साहित्यकार थे उससे कहीं अधिक बड़े पाठक थे। उत्तराखंड का सांस्कृतिक जीवन उनके भीतर रचा और बसा था।

कहानी को ओढ़ने, दशाने और बिछाने वाला हमारे बीच नहीं रहा। कहानी की दुनिया खाली-खाली सी हो गई है। नयी कहानी का एक अध्याय खत्म हो गया। हमें, आपको कहानी से रूबरू कराने वाली खुद कहानी बन गए। नई कहानी में और नयापन देने वाले, सजाने और संवारने वाले शेखर जोशी हमारे बीच से अलविदा हो गए हैं। कहानी को उन्होंने बहुत कुछ दिया। एक कुशल कुंभकार की तरह उसे गढ़ा और तराशा। एक ख़ास पहचना दिलाई। नई कहानी के कथाशिल्प को उन्होंने और मजबूत किया एवं उसे उर्वर बनाया। उनकी कहानियों का कई विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ।

जोशी की कहानियों में पहाड़ के जीवन का यथार्थ भी दिखता है। स्वाधीनता आंदोलन और द्वितीय विश्व युद्ध की छाप भी कहानियों में दिखती है। उनकी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ में पहाड़ के जीवन मूल्य दिखते हैं। उन्होंने कुछ समय पूर्व देव प्रकाश चौधरी से एक साक्षात्कार में बताया था कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पहाड़ों से भारी संख्या में फौज के जवान लड़ने जा रहे थे। उन्हें विदा करते समय परिजनों जो हालात हमने देखी उससे विचलित हो गया। काफी लोग उसमें से लौटकर नहीं आए।

फौजियों और उनके परिवार की पीड़ा को कथानक का आधार बना उन्होंने ‘राजे खत्म हो गए’ जैसी कहानी लिखी। उनकी कहानियां जमीन से जुड़ी और यथार्थ के बेहद करीब होती हैं। उन्होंने चेखव, तुर्गनेव, मैक्सिम गोर्की, आस्त्रोवस्की, चंगीज आइत्मातोव के उपन्यास, माइकोवस्की, नाजिम हिकमत और निकोला वाप्सरोव के हिंदी अनुवाद को खूब पढ़ा। जोशी के बारे में कहा जा सकता है वह जितने बड़े साहित्यकार थे उससे कहीं अधिक बड़े पाठक थे। उत्तराखंड का सांस्कृतिक जीवन उनके भीतर रचा और बसा था।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स