मौजूदा विधानसभा चुनावों में इक्का-दुक्का ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनको लेकर चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। आलोचकों के तर्क कितने वाजिब हैं, उन पर बात करने से पहले उन दो प्रसंगों का जिक्र, जब मैं मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में अपनी सेवा दे रहा था। पहली घटना 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव की है। मेरी नियुक्ति ही हुई थी। मुझे बहुत ज्यादा इल्म नहीं था, फिर भी हमने खूब कड़ाई बरती। मतदान स्थलों पर पर्याप्त सुरक्षा बल लगाए गए। नतीजतन, नक्सल इलाकों तक में कोई हिंसा नहीं हुई। एक मतदान-केंद्र पर एक उम्मीदवार ने हंगामा मचाने की कोशिश की भी, तो उसको तत्काल हिरासत में ले लिया गया। बावजूद इसके, उस चुनाव में हमने अपने 17 कर्मियों को खो दिया। वे किसी गोलीबारी के शिकार नहीं हुए थे, बल्कि निष्पक्ष चुनाव कराने का तनाव उनकी जान ले बैठा था।
दूसरा प्रसंग अगस्त, 2017 का है। गुजरात की तीन सीटों के लिए राज्यसभा चुनाव हो रहे थे। कांग्रेस की तरफ से अहमद पटेल मैदान में थे। तब विधानसभा में कांग्रेस के 57 विधायक हुआ करते थे, लेकिन उनमें से 12 विधायक टूटकर सत्ताधारी दल में चले गए थे। चूंकि एक सीट जीतने के लिए 44 वोटों की जरूरत थी, लिहाजा बाकी बचे 45 विधायकों को लेकर अहमद पटेल बेंगलुरु चले गए, और मतदान के एक दिन पूर्व उन सबको लेकर लौटे। फिर भी, वोट डालते-डालते दो और विधायकों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया। इस तरह, कांग्रेस के पास 43 विधायक ही बच गए थे। मगर जब मतदान हो रहे थे, तब बाद में टूटे कांगे्रसी विधायकों ने अपना मतपत्र नियमत: अपने दल के अधिकृत प्रतिनिधि को दिखाने के साथ-साथ अनधिकृत व्यक्तियों को भी दिखा दिया, जिससे उसकी गोपनीयता भंग हो गई। अहमद पटेल ने बहुत सही शब्दों में शिकायत की। उनका कहना था, मुझे चुनाव आयोग पर पूरा भरोसा है। कृपया, मतदान का वीडियो देखिए, और अगर आपको लगता है कि मतपत्र की गोपनीयता भंग नहीं हुई है, तो आप बेझिझक मेरी शिकायत खारिज कर दीजिए। इसके बाद मतगणना रोक दी गई। भाजपा की तरफ से अरुण जेटली के नेतृत्व में आठ कैबिनेट मंत्री, जबकि पी चिदंबरम के नेतृत्व में आठ वरिष्ठ कांग्रेस नेता हमारे पास आए। आयोग ने दोनों पक्षों को अपना-अपना तर्क रखने के लिए एक-एक घंटा का वक्त दिया। दोनों पक्षों को दोबारा समय भी दिया गया। मगर तीसरी बार उनकी मांग खारिज कर दी गई, क्योंकि मतगणना रुकने की वजह से हंगामे के आसार बन रहे थे। चुनाव आयोग ने दो-दो बार धैर्यपूर्वक उनकी बातों को सुना और फिर मतदान की वीडियो रिकॉर्डिंग मंगवाई। रिकॉर्डिंग अहमद पटेल के दावों की पुष्टि कर रही थी। लिहाजा फैसला कांग्रेस के हक में गया। मगर इस दरम्यान मीडिया में यही बहस चल रही थी कि मौजूदा दोनों चुनाव आयुक्त भाजपा सरकार के कार्यकाल में नियुक्त किए गए हैं, इसलिए भाजपा उम्मीदवार ही चुनाव जीतेगा। इन प्रसंगों की रोशनी में जब हम मौजूदा मामलों को देखते हैं, तो हमें यह एहसास होता है कि चुनाव आयोग अथवा मतदानकर्मी किस जवाबदेही से अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं। यह सही है कि असम में पीठासीन अधिकारी ने भाजपा नेता की गाड़ी में लिफ्ट लेने के पीछे जो तर्क दिए हैं, उसमें संदेह की गुंजाइश है, लेकिन इसे महज एक घटना मानकर आगे बढ़ना चाहिए। यह उनका बचाव नहीं है, बल्कि इस तरह की छोटी-मोटी गड़बड़ियां इसलिए सामने आती हैं, क्योंकि हर इंसान में तनाव झेलने की अलग-अलग क्षमता होती है। पीठासीन अधिकारी प्राय: या तो शिक्षक होते हैं अथवा क्लास-सी अफसर, जबकि चुनाव के दबाव में बडे़ से बड़ा आदमी भी टूट जाता है। इसी तरह, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के नेता के घर से जो ईवीएम या वीवीपैट की बरामदगी हुई है, वे बतौर रिजर्व रखे गए थे। 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी सागर के एक पुलिस थाने में 48 ईवीएम मिले थे। ये मामले दरअसल इसी का परिणाम हैं कि चुनाव ड्यूटी में लगे हरेक व्यक्ति का चरित्र अलग-अलग होता है। सभी समान शिद्दत से अपना दायित्व नहीं निभाते, जबकि चुनाव आयोग सभी को एक सांचे में ढालकर निष्पक्ष चुनाव कराने की कोशिश करता है। यही वजह है कि ताजा घटनाओं के सामने आने के बाद आयोग ने तुरंत कार्रवाई की। हालांकि, वह और सख्त रुख अपना सकता था, क्योंकि मतदानकर्मियों में यह संदेश जरूर जाना चाहिए कि प्रोटोकॉल का उल्लंघन दंडनीय अपराध है। फिर भी, इसमें चुनाव आयोग की नीयत पर शक की गुंजाइश नहीं है।
इन्हीं कारणों से भारतीय चुनाव आयोग और उसके द्वारा संचालित मतदान की विश्व भर में साख है। भारत सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहां अब 90 करोड़ से अधिक मतदाता हैं। अमेरिका और यूरोप के सभी वोटरों को भी जोड़ दें, तो वे भारतीय संख्या के आगे उन्नीस साबित होंगे। इतनी बड़ी संख्या के साथ शांतिपूर्ण चुनाव कराना और सभी सियासी दलों द्वारा जनादेश को स्वीकार करना चुनाव आयोग पर उनके भरोसे का संकेत है। अमेरिका जैसे विकसित देश तक में सत्ता के हस्तांतरण में हिंसा हो गई। कई मुल्कों में तो गृह युद्ध की नौबत आ जाती है। मगर अपने यहां चुनाव में भले ही धींगामुश्ती चलती हो, एक-दूसरे पर आरोप उछाले जाते हैं, लेकिन जब नतीजा आता है, तो बिना ना-नुकुर के उसे मान लिया जाता है। यह बात हर किसी को समझनी चाहिए कि अपने यहां चुनाव आयोग एक तरह से ‘पंचिंग बैग’ है। सभी इसे अपनी ओर खींचना चाहते हैं। चुनाव के समय यह प्रयास बहुत ज्यादा होता है। फिर भी, चुनाव आयोग सभी को धैर्यपूर्वक सुनकर फैसला सुनाता है। सबका ध्यान रखना उसकी मजबूरी भी है, क्योंकि उसका हर फैसला सुप्रीम कोर्ट तक जाता है। अगर उसने अपने फैसले में एक भी कमजोर कड़ी रखी, तो अदालत में उसकी लानत-मलामत होगी। इसीलिए सभी तर्कों का आकलन करके ही चुनाव आयोग कानून सम्मत फैसला लेता है। इस हिसाब से ताजा मामलों से आयोग की साख पर सवाल उठाना गलत है। हां, आदर्श स्थिति तो यही होगी कि एक भी ऐसी घटना न घटे। मगर यह तब होगा, जब हमारे नीति-नियंता मानव संसाधन के विकास पर इतना ध्यान देंगे कि हर व्यक्ति शारीरिक व मानसिक तौर पर स्वस्थ और शिक्षित हो। इस दिशा में काम हो रहा है, लेकिन अभी इसमें वक्त लगेगा।
सौजन्य – हिंदुस्तान