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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 9 Sep 2022 2:47 pm IST


धीरे-धीरे छोड़ते जाएं मन को प्रिय लगनेवाली चीजें


बीते दो-ढाई बरसों में मैंने छोटे-बड़े बहुत सारे संकल्प किए। मैंने बहुत सारी चीज़ें छोड़ीं। यह सब कुछ जानकर नहीं किया था, किन्तु होता गया तो फिर रीति बना ली। जैसे कोई बरसों पुरानी आदत हो। फिर कोई बीमारी आदि हुई, चार-छह दिनों के लिए वह आदत छूटी तो फिर मैं लौटकर उसके पास नहीं गया। उस आदत से मैंने कहा कि अब तुम छिटकी ही रहो। कभी कोई बड़ी भारी किताब उठा ली। जिसे पूरा करने/पढ़ने में महीनों लग गए तो मन ने विद्रोह कर दिया कि अब जी घुटने लगा है। इसे छोड़कर कुछ और उठा लो। तब मन को बांधा और कहा कि इसे पूरा करके ही उठना है, यह प्रण है। हो सकता है कि किसी दूसरी चीज या काम को करने से अधिक रस मिले। किन्तु जीवन में प्रश्न रस लेने का नहीं है, निश्चय को पूरा करने का है। निश्चय पूरा न किया तो फिर किसी भी दूसरी वस्तु में रस नहीं मिलने वाला है। भटके मेघ का कोई आलम्बन नहीं होता। भटके मन का भी कोई ठौर नहीं, उसका सुख क्या और दुख क्या?

फिर कुछ प्रिय लगनेवाली चीज़ें छोड़ दीं या छूट गईं। मन को चुनौती देकर ललकारा और कहा कि अब इसे छोड़ता हूं, तू अपनी बता। मन बेचैन हुआ। उससे मुझे संतोष मिला क्योंकि मन के परे एक नियंत्रक-तत्व को महसूस किया। यह भी संभव है कि एक ही मन हो दो टुकड़ों में टूटा हुआ, विभाजित व्यक्तित्व हो, स्वयं से ही लड़ता हो। किन्तु मैंने लड़ाई छेड़े रखी।

तब मुझे लगा कि मैं किसी चीज़ के छूट जाने के डर से यह करता हू। शायद यह सोचता हूं कि एक दिन तो यह छूटेगी। उससे बेहतर है कि पहले मैं ही छोड़ दूं। अपना मान रहेगा। फिर खुद से पूछा, वैसी कौन-सी चीज़ है, जो एक दिन छूटेगी नहीं? सब कुछ ही छूटेगा। तब जीवन अनजाने ही छोड़ते चले जाने की एक रीति बन गया।

इरफ़ान की एक फ़िल्म में संवाद है कि एक सीमा के बाद जीवन लेट-गो की प्रक्रिया बन जाता है कि हम चीज़ों को छोड़ते चले जाएं या पुरानी आदतों को खत्म करते चलें। मानो जगह खाली करते हों। किन्तु किस चीज़ के लिए?

संसार में जीवित रहने का एक भाव यह भी है कि एक लंबी यात्रा पर आगे निकलना है तो यहां खूंटे-खंभे वगैरा ज्यादा न गाड़ें और जो गड़े हों, उन्हें उखाड़ते चलें। जिस चीज़ से मन बंध जाता हो, उसे तटस्थ होकर देखें कि एक दिन यह दुख देगी तो ऐसा करो कि उससे दुख मत लो! 

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स