कुछ महीने पहले एक महिला एसडीएम चर्चा में थीं। कोई और नहीं, उनके पति ने ही उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मामलों को पब्लिक डॉमिन में उठाया था। सरकार के समक्ष भी शिकायत दर्ज कराई थी। सरकार ने जांच बिठा दीं। जांच ने रफ्तार पकड़ना शुरू ही किया था कि एक रोज उनके पति ने उन शिकायतों को वापस लेने का ऐलान कर दिया। बोले, हमको कोई शिकायत नहीं। जाहिर सी बात है कि जब शिकायत न रह जाए तो फिर जांच किस बात की? इस प्रकरण की याद इसलिए कि अपने को समाज सेविका बताते हुए एक महिला ने भी एक हाईप्रोफाइल मामले की लोकायुक्त के यहां शिकायत दर्ज कराई हुई है।
लोकायुक्त ने उसका संज्ञान भी ले लिया। संज्ञान का मतलब ही यही होता कि प्रकरण जांच योग्य है। जिन लोगों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई है, उन्हें नोटिस भी जारी हो गई कि अचानक गुजरे सोमवार को वह महिला लोकायुक्त के सामने अपनी शिकायत से एक आईएएस अधिकारी का नाम हटाने की दरख्वास्त लगा देती हैं। तर्क यह है कि प्रतिवादी के रूप में उक्त अधिकारी का नाम त्रुटिवश अंकित हो गया था। पहली नजर में तो यह कहा जा सकता कि जब मियां-बीबी राजी, तो क्या करे काज़ी? लेकिन ऐसे मामलों को महज ‘मियां-बीबी’ के मामलों की मानिंद नहीं माना जा सकता।
दरअसल यह भरोसे के टूटने जैसा होता है। इसके जरिए भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई भी कमजोर होती है। हो सकता है कि शिकायत वापस लेने की जो वजह बताई जा रही हो, वह सही हो लेकिन बहुत सारी कहानियां सतह पर तैरने लग जाती हैं। इस शंका को बल मिलता है कि जरूर पर्दे के पीछे कोई खेल हुआ होगा तभी शिकायत वापस ली गई है। इससे दो तरह के नुकसान होते हैं। पहला तो यह कि ऐसे उदाहरणों से भ्रष्टाचार को पोषित करने करने वालों के हौसले बुलंद होते हैं। उन्हें लगता है कि सब कुछ ‘मैनेज’ हो सकता है। उनका डर खत्म हो जाता है। आत्मविश्वास बढ़ता है कि कुछ नहीं होगा।
दूसरा नुकसान होता है कि शिकायतों की गंभीरता खत्म हो जाती है। सक्षम अधिकारी के लिए यह यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि जो शिकायत की जा रही है कि वह कितनी सच है? या शिकायतकर्ता अपनी शिकायत पर कितने वक्त तक डिगा रह पाएगा? धारणा यह भी बन जाती है कि शिकायत सिर्फ ‘सौदेबाजी’ करने के लिए ही की गई है। यही वजह होती है कि शिकायतों पर प्रभावी कार्रवाई की जो रफ्तार होनी चाहिए, वह रफ्तार नहीं दिखती। सुशासन के लिए ऐसी स्थिति को किसी भी तरह से अच्छा नहीं कहा जा सकता। शिकायत करने वाला अगर शिकायत वापस ले रहा है कि तो उससे यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि शिकायत करने से पहले उसने तथ्यों की प्रामाणिकता क्यों नहीं परखी? क्या उसने किसी को परेशान करने या बदनाम करने की गर्ज से शिकायत की थी? गलत तथ्यों के आधार पर शिकायत दर्ज कराने पर उसके खिलाफ उसके खिलाफ कार्रवाई क्यों न की जाए?
ऐसा होने से शिकायत वापस लेने पर पर्दे के पीछे की जो कहानियां सतह पर आती हैं, अगर उनमें सच्चाई होती होगी तो उन पर अंकुश लगेगा। सरकार के स्तर से यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि महज शिकायतकर्ता के शिकायत वापस लेने मात्र से जांच खत्म नहीं होगी। एक बार अगर सरकार के संज्ञान में कोई शिकायत आ गई है तो उसकी पूरी जांच होगी क्योंकि शिकायत वापस कराने के लिए जो साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाने वाले लोग होते हैं, वह शिकायत वापस वापस कराकर भी राहत नहीं पा सकेंगे। उम्मीद है इस दिशा में सरकार जरूर कोई कदम उठाएगी।
सौजन्य से - नवभारत टाइम्स