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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 4 Oct 2023 1:14 pm IST


महिला सभा में पुरुष


वह महिलाओं की ही सभा थी। पुरुषों की मौजूदगी पांच-सात या अधिक से अधिक 10 फीसदी रही होगी। लेकिन वह मौजूदगी भी बेहद अहम थी। यह उस सभा को इकरंगा नहीं होने दे रही थी। हालांकि अगर सवाल सिर्फ रंगों का हो तो उस सभा में रंग ऐसी किसी भी सामान्य सभा के मुकाबले ज्यादा नजर आ रहे थे। इसे भी मंच से महिलाओं की एक खूबी बताया गया कि उनकी ड्रेस में रंगों की जबरदस्त विविधता होती है। शायद विविधताओं से उनका यह प्रेम ही है जो सामाजिक और सांस्कृतिक मामलों में भी उन्हें विविधतताओं को लेकर ज्यादा सहिष्णु, ज्यादा उदार बनाता है।

बहरहाल, बात सभा में मौजूद उन कुछेक पुरुषों की हो रही थी, जो यह जानते-बूझते आए थे कि वह महिलाओं की सभा है, जहां उनके मुद्दों पर, उनके द्वारा और उनकी बातें होंगी। तो आखिर जरूरत क्या थी इन पुरुषों को वहां पहुंचने की? क्या उनके बगैर महिलाएं अपने मुद्दों पर चर्चा नहीं कर सकती थीं? क्या उन्हें वे बातें समझने और समझाने के लिए पुरुषों की जरूरत थी जो उनकी अपनी समस्याएं हैं? और वे पुरुष वहां कर भी क्या रहे थे सिवाय इसके कि अपनी सीटों पर बैठे रहें और मंच से कही जा रही कुछ बातों पर तालियां बजाकर उनके प्रति समर्थन जताएं?

मगर फिर भी कुछ ऐसी बात थी इन पुरुषों की मौजूदगी में जिसकी कोई भी अनदेखी नहीं कर पा रहा था। बीच-बीच में मंच से कहा भी जा रहा था कि ऐसे पुरुषों की सहभागिता हमारा मनोबल तो बढ़ाती ही है, हमारे मकसद को भी व्यापकता और संपूर्णता देती है। असल में जो पुरुष उस सभा में गए थे, वह अपनी उपस्थिति के जरिए यह बता रहे थे कि किसी भी समाज में महिला हो या कोई अन्य तबका, अगर वह गैर-बराबरी और अन्याय से जुड़े मुद्दे उठाता है और बराबरी की जमीन पर खड़े होकर इंसाफ की मांग करता है तो वह उसकी अकेले की मांग नहीं होती। वह पूरे समाज की जरूरत होती है भले ही समाज का बड़ा हिस्सा उस वक्त उस जरूरत को महसूस नहीं कर रहा हो। स्वाभाविक रूप से उस मांग में शामिल होना, उसे मजबूती देना समाज के सभी इंसाफपसंद लोगों का ऐसा मूलभूत अधिकार होता है, जिससे उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता, खुद वे लोग भी नहीं कर सकते जिन्होंने वह लड़ाई शुरू की हो। इसीलिए जो यह कहते हैं कि मजदूरों की लड़ाई सिर्फ मजदूर, महिलाओं की लड़ाई सिर्फ महिलाएं और दलितों की लड़ाई सिर्फ दलित लड़ सकते हैं वे जाने अनजाने न सिर्फ इस लड़ाई को कमजोर करते हैं बल्कि समाज के इंसाफपसंद हिस्से का हक छीन रहे होते हैं। उन लोगों का हक जो किसी अन्य पहचान के बूते नहीं बल्कि सिर्फ इंसान के नाते अपने समाज को हर तरह के अन्याय और भेदभाव से मुक्त कर उसे संपूर्णता की ओर ले जाने का ख्वाब पाले हैं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स