बचपन से ही मुझे लताजी के गानों से प्यार था। फिर जब मैंने मुंबई के विद्यानिधि हाईस्कूल में पढ़ाना शुरू किया, तो वहां संगीतकार उत्तम सिंह की बेटा-बेटी पढ़ने आया करते। उन्हें गणित और विज्ञान पढ़ाने के लिए मैंने उनके घर जाना शुरू किया। तब ‘मैंने प्यार किया’ फिल्म में राम-लक्ष्मण का म्यूजिक काफी हिट हो गया था और उनके सहायक उत्तम सिंह थे। एक दिन मैंने उन्हें लताजी से मिलवाने को कहा। उन्हीं दिनों फिल्म ‘सातवां आसमान’ के गानों की रेकॉर्डिंग में लताजी आने वाली थीं। उत्तम सिंह ने कहा कि तुम स्टूडियो जल्दी आ जाना, मैं मिलवा दूंगा। स्टूडियो पहुंचने पर मैंने देखा कि लताजी का कैसा प्रभाव संगीत निर्देशकों पर रहता था। एक गाने में उन्हें एक शब्द खटक रहा था। उन्होंने स्टूडियो के अंदर से ही सुझाव दिया कि ‘इस’ शब्द की जगह पर ‘ये’ शब्द ले लिया जाए तो गाना आसान हो जाएगा और गाने का अर्थ भी नहीं बदलेगा। राम-लक्ष्मण ने यह बात तुरंत मान ली। फिर दो गानों के ब्रेक के बीच मैं उनसे मिला। मैंने उन्हें बताया कि मुझे आपके करीब दो हजार गाने अंतरे-मुखड़े के साथ जबानी याद हैं। इस पर लताजी ने आश्चर्य जताया। फिर मैंने उनसे ऑटोग्राफ देने का आग्रह किया।
बाद में मैंने लताजी से एक बार फिर मिलने के लिए अपने एक मित्र के जरिए उनके भांजे योगेश से संपर्क किया। बात बन गई और मैं मुंबई के पैडर रोड स्थित लताजी के आवास प्रभु कुंज जा पहुंचा। मुझे मुलाकात के लिए 15 मिनट मिले थे। बातचीत शुरू हुई तो मैंने कहा कि लताजी मेरे मन में आपके लिए जो भावना है, उसे मैं आपके ही गाए एक गाने से व्यक्त कर सकता हूं। उन्होंने पूछा, कौन सा गाना? मैंने कहा, ‘हमें और जीने की चाहत न होती, अगर तुम न होते ……।’ यह सुनकर वह खुलकर हंसीं।
फिर मैंने कहा कि आपका पहला सुपरहिट गाना, ‘हवा में उड़ता जाए, मेरा लाल दुपट्टा मलमल…’ का था ना? मुझे पता था कि ऐसा नहीं था, लेकिन बातचीत बढ़ाने के लिए मैंने उनसे यह बात कही। उन्होंने तुरंत कहा, ‘नहीं-नहीं, मेरा पहला हिट गाना था – महल फिल्म का ‘आएगा आने वाला।’ था। फिर वह खुलती गईं और मैं चुन-चुनकर गानों की याद दिलाता गया। फिर तो 15 मिनट की तय भेंट कब डेढ़ घंटे की अविस्मरणीय मुलाकात में बदल गई, पता ही नहीं चला। लताजी ने मराठी में संगीत निर्देशक भी रही हैं। आनंद घन नाम से उनके कई सुपरहिट गाने हैं। इसी बातचीत में मैंने उनसे पूछा कि आपने हिंदी फिल्मों के लिए संगीत निर्देशन क्यों नहीं किया? उन्होंने बताया, ‘मुझे बहुत लोगों ने इसका प्रस्ताव दिया, लेकिन मैं इसलिए नहीं गई कि मेरा गाने के ऊपर जो फोकस था, वह हट जाता।’ कुछ गानों में कहीं-कहीं गायक स्वतः ही थोड़ी सी ‘जगह’ लेते हैं और बदलाव करते हैं। लताजी ऐसा अक्सर करती थीं। मैंने पूछा कि ऐसा वे संगीत निर्देशक के कहने पर करती हैं या खुद कर देती हैं? इस पर उन्होंने हंसकर कहा, ‘नहीं यह तो मुझे गाते-गाते ही सूझ जाता था और मैं कर देती थी। इसे लेकर तो मोहम्मद रफी के साथ मेरा कई बार विवाद भी हुआ। रफी हंसकर पूंछते थे कि तुम यहां ‘जगह’ लेने वाली हो, यह मुझे पहले क्यों नहीं बताया। मैं भी ले लेता। तो मैं कहती कि जब मुझे गाते-गाते सूझा तो मैं पहले कैसे बता सकती थी।’
फिर मैंने उनसे आलाप के बारे में पूछा कि क्या किसी गाने में आलाप लेने के बारे में संगीत निर्देशक ही आपको बताते हैं? इस पर उन्होंने बताया, ‘संगम फिल्म का संगीत जब बन रहा था, तब मैं, शंकर और जयकिशन तीनों साथ बैठकर गीत पर चर्चा कर रहे थे। उसी समय राज कपूर का लंदन से फोन आया। उन्होंने कहा कि इस गाने में शुरुआत में आलाप चाहिए। इसलिए मैंने ‘ओ मेरे सनम’ गाने में लंबा आलाप दिया है।’
आज भी जब मैं कभी प्रभु कुंज के सामने से गुजरता हूं तो नजर एक बार पहली मंजिल पर जरूर चली जाती है। लेकिन तब उन्हीं का गाया हुआ बागी फिल्म का गीत याद आता है कि हमारे बाद इस महफिल में अफसाने बयां होंगे, बहारें हमको ढूंढेंगी, न जाने हम कहां होंगे।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स