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• Sat, 18 Nov 2023 1:43 pm IST


मेरा नाम बॉन्ड है... इलेक्टोरल बॉन्ड


चुनावी बॉन्ड की वैधता से जुड़े मामले पर सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई पिछले दिनों पूरी हो गई। भारत सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने राजनीतिक दलों की फंडिंग के बारे में जानने के आम लोगों के अधिकार का विरोध किया। उनके मुताबिक, चंदा देने वालों का प्राइवेसी का अधिकार ज्यादा महत्वपूर्ण है। हालांकि सूचना के अधिकार के पक्ष में मजबूत दलीलें दी जा सकती हैं। नागरिकों को यह जानने का पूरा अधिकार है कि राजनीतिक दलों को पैसा कौन दे रहा है। लेकिन पारदर्शिता की जरूरत सिर्फ इस वजह से नहीं है। यह राजनीतिक दलों की फंडिंग को नियमित करने के लिहाज से भी जरूरी है। जैसा कि वकील गौतम भाटिया ने दो साल पहले तर्क दिया था कि पारदर्शिता इसलिए जरूरी है ताकि नीतियां खरीदी न जाने लगें और राजनीतिक दलों के बीच संसाधनों के बंटवारे में थोड़ी निष्पक्षता लाई जा सके।

पैसों का प्रवाह

दूसरी तरफ, सौ फीसदी पारदर्शिता के भी अपने नुकसान हैं। इससे कंपनियां कानूनी रास्तों से बचने लगेंगी और चंदा देने के गैरकानूनी तरीके अपनाएंगी। कॉरपोरेट चंदे पर पूरी तरह रोक लगाने से भी कोई फायदा नहीं होने वाला। राजनीति में पैसे की जो केंद्रीय भूमिका हो गई है, उसे देखते हुए वहां पैसों का प्रवाह इन कदमों से कम नहीं होने वाला।

किस अधिकार के मुकाबले किस अधिकार को ज्यादा अहमियत मिलनी चाहिए, यह सवाल सिर्फ वैचारिक नहीं, व्यावहारिक भी है। सॉलिसिटर जनरल ने गलत नहीं कहा कि चंदा देने वालों को लेकर पूरी पारदर्शिता बरती गई तो वे प्रतिशोध का शिकार हो सकते हैं। अपने शुरुआती वर्षों में आम आदमी पार्टी फंडिंग की पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए चंदा देने वालों के नामों की सूची प्रकाशित करने लगी थी। लेकिन इससे उसके डोनर जांच एजेंसियों के निशाने पर आ गए और AAP को जल्दी ही पारदर्शिता का अपना यह विचार छोड़ना पड़ा।

चुनावी बॉन्ड की एक दिक्कत यह भी है, जिसे खुद बेंच ने भी अपनी टिप्पणियों में रेखांकित किया कि यह पक्षपातपूर्ण गोपनीयता मुहैया कराता है।

नागरिकों और विपक्षी दलों को जरा भी अंदाजा नहीं होता कि किसने किसे कितना चंदा दिया, लेकिन जांच एजेंसियों पर अपने कंट्रोल की बदौलत सरकार के पास पूरी जानकारी होती है। लिहाजा सत्तारूढ़ दल की भी पहुंच इन सूचनाओं तक हो जाती है।
यह सही है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया भारत सरकार को फंडिंग से जुड़ी सूचनाएं मुहैया कराने को मजबूर नहीं है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उसे ये सूचनाएं जाहिर करने से मना किया गया है। भारत में संस्थाओं की स्वायत्तता की जो स्थिति है, उसे देखते हुए इस तरह के गोपनीयता प्रावधानों पर शक लाजिमी है।
दिलचस्प है कि ऐसी अधूरी गोपनीयता चंदा देने वालों को भी पसंद आती है। आखिर किसी राजनीतिक दल को चंदा देने का फायदा ही क्या जब किसी को कानोंकान इसकी खबर ही नहीं हो?
भले ही पूर्ण पारदर्शिता व्यावहारिक न हो और कई समस्याएं पैदा करती हो, लेकिन इसका उलटा तो और बुरा है। मौजूदा व्यवस्था कंपनियों की ओर से असीमित गुमनाम डोनेशन को वैधता प्रदान करती है। इस पर कानूनी निगरानी ना के बराबर है। इसमें शेल कंपनियों के जरिए राजनीति को पैसा पहुंचाने पर रोक का कोई इंतजाम नहीं है। यहां तक कि विदेशी कंपनियों की सहायक भारतीय कंपनियों को भी डोनेशन देने की इजाजत मौजूदा व्यवस्था में मिली हुई है। संवैधानिक संस्थाएं फिलहाल इस प्रक्रिया पर नजर रखने में समर्थ नहीं हैं।

चुनाव आयोग वैसे बहुत ताकतवर है, लेकिन उसके पास भी राजनीतिक चंदे को नियमित करने के लिए आवश्यक कानूनी शक्तियां नहीं हैं। जो राजनीतिक दल समय पर अपने चंदों का ब्योरा नहीं देते, उन्हें दंडित करने की ताकत चुनाव आयोग के पास नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान ही साफ हो गया कि आयोग इलेक्टोरल बॉन्ड से जड़े नियमित आंकड़े भी नहीं रख पा रहा।
ऐसे में कुछ लोगों का मानना है कि भारत में भी पब्लिक फंडिंग की व्यवस्था अपनाई जानी चाहिए, जो ज्यादातर यूरोपीय लोकतांत्रिक देशों में है। हालांकि पहली नजर में आकर्षक लगती है, लेकिन यह व्यवस्था देश में नहीं लागू हो सकती। राजनीतिक पार्टियां इसके लिए कभी तैयार नहीं होंगी।

खैर बहस जारी है, कोर्ट के फैसले का भी इंतजार हो ही रहा है, लेकिन इसी बीच यह याद कर लेना बेहतर रहेगा कि राजनीति में कुल जितना पैसा आ रहा है, इलेक्टोरल बॉन्ड उसका एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) के मुताबिक, 2019 के चुनावों में पार्टियों को कुल 7360 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉन्ड से मिले, जबकि सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के मुताबिक उन चुनावों में 60,000 करोड़ रुपये से ज्यादा रकम खर्च की गई थी।

बढ़ता चुनावी खर्च

बेशक, चुनावी बॉन्ड ने राजनीति में पैसे डालने का एक नया कानूनी रास्ता बनाया है, लेकिन पुराने अवैध रास्ते बंद नहीं हुए हैं। यह बात शीशे की तरह साफ है कि चुनावी बॉन्ड चुनावी खर्च को कम करने की दिशा में कोई मदद नहीं कर पाए हैं। उलटे, चुनाव प्रचार के खर्च में बेतहाशा बढ़ोतरी होती जा रही है। चुनावी बॉन्ड ने यह भ्रम जरूर तैयार किया है कि भारत में राजनीतिक दलों की फंडिंग की प्रक्रिया अब पाक-साफ हो गई है। इस लिहाज से ये भारत में पॉलिटिकल फंडिंग के लिए सबसे नुकसानदेह कहे जा सकते हैं।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स