मास्टर प्लान 2041 का फाइनल ड्राफ्ट केंद्र सरकार के पास विचाराधीन है। आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय इसे कैबिनेट की बैठक में पेश करेगा और वहां मुहर लगने के बाद ही इसे लागू किया जाएगा। हालांकि मास्टर प्लान का 80 फीसदी हिस्सा ऐसा होता है, जो पहले से ही तैयार है। 20 फीसदी हिस्से में ही मुख्य तौर पर रद्दोबदल होता है या फिर नए प्रावधान जोड़े जाते हैं। लेकिन इस बार के मास्टर प्लान के ड्राफ्ट में एक ऐसे प्रावधान को हटाया गया है, जिसका दिल्ली पर दूरगामी असर पड़ सकता है। ये बदलाव है, लोकल एरिया प्लानिंग का। अब तक मास्टर प्लान में लोकल एरिया प्लानिंग का प्रावधान होता रहा है। इससे लोकल स्तर पर प्लानिंग करने या जरुरत के मुताबिक बदलाव करने में आसानी होती है। दिल्ली में लोकल एरिया प्लानिंग का पैमाना वार्ड स्तर का होता है। जिस तरह से पहले दिल्ली में नगर निगम के 272 वार्ड थे। लगभग हर वार्ड यानी 50 से 70 हजारी की आबादी के एरिया के स्तर पर प्लानिंग का प्रावधान होता रहा है।
डीडीए के रिटायर्ड प्लानिंग कमिश्नर ए.के. जैन के मुताबिक ये महत्वपूर्ण बिंदु है, जिसे अब हटाया गया है। दरअसल, दिल्ली में किसी भी एरिया में एक जैसी आबादी नहीं है। अधिकांश इलाकों में एक एरिया में पॉश या मध्यम वर्ग कालोनी होती है तो साथ ही स्लम बस्ती भी या शहरीकृत गांव भी। ये सब होते एक ही एरिया में हैं लेकिन इनकी समस्याएं अलग अलग होती हैं। लोकल एरिया प्लानिंग का सबसे बड़ा फायदा ये होता है कि लोकल करेक्टर की फिजिबिल्टी को ध्यान में रखा जा सकता है। लेकिन इस प्रावधान के हटने के बाद ये दिक्कत होगी कि इन सभी की अलग अलग समस्याओं का कैसे समाधान किया जा सके।
उदाहरण के तौर पर बिल्डिंग बॉयलॉज का मामला ही लीजिए। शहरीकृत गांव, पॉश कालोनी और झुग्गी झोपड़ी या पुनर्वास कालोनी में एक जैसे बिल्डिंग बॉयलॉज तो लागू नहीं हो सकते। इस तरह की बड़ी समस्याएं होती हैं, जिनके लिए लोकल स्तर पर स्टडी करके उनका समाधान खोजना होता है। लेकिन अगर लोकल एरिया प्लानिंग का प्रावधान ही खत्म हो जाएगा तो फिर समस्याओं का समाधान कैसे होगा। इसी तरह की दिक्कतें बाजारों के साथ भी होंगी। एक ही लाठी से सभी को नहीं हांक सकते। कुछ जगह तो बाजारों की प्रकृति लोकल होती है लेकिन कई बाजार ऐसे होते हैं, जो लोकल होते हुए भी बहुत बड़े होते हैं। ऐसे एरिया में बहुत बड़े इलाके से लोग पहुंचते हैं। ऐसे में उन बाजारों की जरुरतें अलग होती हैं जबकि बिल्कुल ठेठ लोकल बाजारों की जरूरत अलग होती है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स