आखिर हिलती बचती हिलती बचती कुर्सी की परिस्थितियों के बीच मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को अपनी कुर्सी गंवानी ही पड़ गई। इसी के साथ एक बार फिर यह साबित हो गया कि प्रदेश की राजनीति पर तथाकथित सर्वे भारी पड़ गया है। उत्तराखंड की राजनीति के लिए शायद इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अब तक कई मुख्यमंत्री ऐसे ही तथाकथित सर्वे का शिकार होकर बीच में ही हटाए जाते रहे हैं। बात अगर सबसे पहले मुख्यमंत्री बने नित्यानंद स्वामी के कार्यकाल की बात करें तो 9 नवंबर 2000 को मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले नित्यानंद स्वामी को वर्ष 2002 में होने वाले विधानसभा के पहले चुनाव से करीब 6 महीने पहले ही हटाकर भगत सिंह कोश्यारी को मुख्यमंत्री बना दिया गया था। उस समय भी दावा किया गया था कि भाजपा हाईकमान ने किसी एजेंसी से सर्वे कराया है जिसमें यह रिपोर्ट दी थी कि अगर नित्यानंद स्वामी के नेतृत्व में चुनाव हुए तो भाजपा के जीतने की संभावना बहुत ज्यादा नहीं है। आखिरकार नित्यानंद स्वामी को इस्तीफा देना पड़ा ऐसी ही स्थिति भुवन चंद खंडूरी के समय में हुई जब उनके कार्यकाल पर उंगलियां उठाते हुए डॉ रमेश पोखरियाल निशंक को मुख्यमंत्री बनाया गया और उसके बाद निशंक के कार्यकाल को भी किसी सर्वे के आधार पर चुनाव जिताने में ना काबिल बताते हुए निशंक को भी मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया था। सर्वे का यह दबाव केवल भारतीय जनता पार्टी ने ही नहीं झेला बल्कि कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं रही । वर्ष 2012 में जब विजय बहुगुणा मुख्यमंत्री बने और 2013 में आई आपदा के बाद उनके प्रदर्शन को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने बेहद नेगेटिव बताते हुए उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में विफल बता दिया था तब भी एक अघोषित सर्वे का हवाला देकर विजय बहुगुणा को हटाकर हरीश रावत को मुख्यमंत्री बना दिया गया था। राजनीतिक अस्थिरता के दौर से लगातार गुजर रहे उत्तराखंड में अभी तक यह माना जा रहा था कि बार-बार कि चर्चाओं के बीच इस तरह से त्रिवेंद्र सिंह रावत अपनी कुर्सी बचाने में सफल हो रहे थे तो यह उम्मीद थी कि वह 5 साल का कार्यकाल पूरा करेंगे लेकिन एक बार फिर भाजपा को मुख्यमंत्री बदलना पड़ा। इस बार भी यह चर्चा आम है कि दिल्ली से कराए गए किसी अघोषित सर्वे ने मुख्यमंत्री के रूप में त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल को चुनाव जिताने में अक्षम बताया है। इस आधार पर मुख्यमंत्री को जाना पड़ा एक बार फिर साबित हो गया कि दिल्ली से कराए जाने वाले घोषित और अघोषित सर्वे उत्तराखंड की राजनीति की चूले हिला रहे हैं।