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• Sat, 13 Mar 2021 2:01 pm IST


अब नवाचारों को परखने का समय



हाल-फिलहाल के वर्षों में किसी भी अन्य घटना से कहीं ज्यादा इस महामारी ने जीवन, आजीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य को प्रभावित किया है। इस दौर की चुनौतियों से पार पाने के लिए दुनिया भर में नवाचार, यानी इनोवेशन हुए हैं और उनके मुताबिक कुछ तौर-तरीके भी बदले गए हैं, लेकिन इनका लाभ चंद लोगों को ही मिल सका, सभी को नहीं। स्वास्थ्य सेवाओं की बात करें, तो बेहतर स्वास्थ्य-व्यवहार अपनाने के उपाय, स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी ढांचों की सीमाएं, मानव संसाधनों की उपलब्धता में कमी और आपूर्ति शृंखला में रुकावट जैसी समस्याएं व्यापक तौर पर देखी गई हैं। बेशक ये सभी महामारी की देन नहीं थीं, बल्कि कई तो पहले से हमारे समाज में मौजूद थीं, लेकिन महामारी के दौरान ये सभी समस्याएं कहीं ज्यादा गहरी नजर आईं। हमने देखा कि किस तरह से संक्रमण से बचाव और उससे निपटने जैसे कामों में स्वास्थ्यकर्मियों को लगाया गया। उन्हें अपनी नियमित जिम्मेदारियों से अलग कर दिया गया, जिस कारण उन सेवाओं में स्वास्थ्यकर्मियों की कमी हो गई। इसी तरह, कोरोना मरीजों की जांच और इलाज के लिए स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी सुविधाएं इस्तेमाल की जाने लगीं, जिससे नियमित सेवाएं उन सुविधाओं से महरूम हो गईं। आपूर्ति शृंखला लॉकडाउन की वजह से बाधित हो ही गई थी। इन सभी से नियमित स्वास्थ्य सेवाएं, जैसे नियमित टीकाकरण, टीबी के मरीजों की जांच इलाज, मातृ एवं बाल स्वास्थ्य देखभाल और पोषण संबंधी कार्यक्रमों में खासा रुकावट पैदा हुई। पर भारत के लिए नवाचार कोई नई घटना नहीं है। महामारी के कुछ महीनों में ही ऐसे कई प्रयोग हुए, जो स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोगों की कुछ समस्याओं को हल करते दिखे। कम से कम चार मामलों में खासा नवाचार हुए। पहला मामला है, प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना। दूसरा, सामुदायिक (सोशल) मंचों का फायदा लेना। तीसरा, अग्रिम पंक्ति के कर्मियों को सशक्त बनाना और चौथा, आपूर्ति शृंखलाओं में बढ़ोतरी करना।

ज्यादातर नवाचारों में डिजिटल प्लेटफॉर्म का लाभ उठाया गया। जैसे, सुदूर इलाकों में ऑनलाइन काउंसिलिंग की गई और लोगों को परामर्श दिए गए; राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की निगरानी के लिए बाल विकास-निगरानी एप बनाया गया; उत्तर प्रदेश में नियमित टीकाकरण के बारे में लाभार्थी समाज के लिए रिमांइडर कॉलकी व्यवस्था की गई; गुजरात, केरल और पंजाब में अग्रिम मोर्चे के स्वास्थ्यकर्मियों के लिए टीबी कोविड से जुड़े डिजिटल निगरानी एप तैयार किए गए; छाती का स्कैन करने गड़बड़ियों का पता लगाने के लिए कृत्रिम-बुद्धिमता, यानी एआई आधारित जांच की व्यवस्था की गई। विभिन्न संगठनों ने अग्रिम मोर्चे के अपने कर्मचारियों के प्रशिक्षण और उन तक सूचना आदि पहुंचाने के लिए डिजिटिल मंचों का इस्तेमाल किया। इस तरह की अनेक सेवाएं शुरू की गईं, जिनमें -संजीवनी, स्वस्थ, प्रैक्टो, पोर्टिया, टेको, अनमोल जैसे नाम प्रमुख हैं। स्वयं सहायता समूहों और ग्राम संगठनों के रूप में समुदाय-आधारित संस्थाओं की भागीदारी ने समाज में हाशिये के लोगों की सेवा करने की क्षमता बढ़ाने में मदद की। जागरूकता के माध्यम से सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं द्वारा सक्रिय टीबी रोगियों की खोज; हेल्पलाइन नंबरों द्वारा स्वयंसेवक समूहों द्वारा गर्भवती महिलाओं के लिए समय पर सूचना पहुंचाना; पंचायती राज संस्थाओं के सहारे जरूरी स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने में मदद जैसे कामों ने स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने में अपना योगदान दिया। -फार्मेसी के माध्यम से टीबी के इलाज घर पर दवा पहुंचाने के लिए सोशल फ्रेंचाइजिंग मॉडल का भी इस्तेमाल किया गया। वैसे भारत में कई नवाचार शुरू तो हुए, लेकिन उनके दायरे और प्रभाव का शायद ही मूल्यांकन किया गया। देखा जाए, तो देश में सफल नवाचारों के विस्तार और प्रसार की पर्याप्त क्षमता है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि सरकार इनकी क्षमता को नहीं समझ रही। टेलीमेडिसिन के लिए दिशा-निर्देश जारी करना और राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत दरअसल, डिजिटल प्लेटफॉर्म से अधिक से अधिक लाभ लेने का आधार ही तो है। बेशक ग्रामीण भारत में इंटरनेट की सीमा, इंटरनेट के इस्तेमाल में लैंगिक असमानता डाटा साझा करने संबंधी मानदंडों की चिंताएं डिजिटल मंचों के प्रभाव को सीमित करती हैं। पर स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी मंचों पर ध्यान देकर कुछ हद तक सूचना की जरूरत, काउंसिलिंग, घर तक दवाओं की पहुंच सुनिश्चित करने जैसी मांग और आपूर्ति से जुड़ी समस्याओं का हल निकाला जा सकता है। इसी तरह, मजबूत नीतियां बनाकर स्वयं सहायता समूहों की सात करोड़ महिला सदस्यों को स्वास्थ्य सेवा में संस्थागत भूमिका निभाने के लिए सक्षम बनाया जा सकता है। जरूरी सेवाओं की मांग और स्वास्थ्य सेवाओं की जवाबदेही तय करने जैसे कामों में उनकी मदद ली जा सकती है। महामारी के समय तमाम तरह के नवाचार हुए। कुछ का इस्तेमाल छोटी-छोटी जगहों पर भी हुआ, कुछ का उपयोग निजी संगठनों ने किया और बाकी सरकार ने। पर ज्यादातर के प्रभावों का मूल्यांकन नहीं किया गया है। इनके लिए नीतियां बनाने की दरकार है, खासतौर से उनके प्रभाव का आकलन करने के लिए। नवाचारों के भौगोलिक दायरों को पहचानने के लिए, वर्तमान सेवाओं के साथ उनकी सहभागिता परखने के लिए और निजी नवाचारियों के साथ सार्थक साझेदारी विकसित करने के लिए भी असर का आकलन करना चाहिए। नवाचारों के लिए कम से कम तीन पहलुओं पर हमें विशेष ध्यान देना होगा। एक, नवाचार के प्रभाव का आकलन के साथ ही उसे प्रमाणपत्र भी देना होगा, जिसके लिए संस्थागत तंत्र की दरकार होगी। दूसरा, ऐसा नीतिगत वातावरण बनाना होगा, जो नवाचारों के सार्वजनिक अनुबंधों को प्रोत्साहित करे। यह उस संदर्भ में खास जरूरी है, जब सार्वजनिक व्यवस्था में मौजूद आजमाए गए उत्पादों या सेवाओं की खरीद का बड़ा लाभ मिलता हो। तीसरा पहलू, अनुदान कर्ज के लिए ऐसा तंत्र बनाना, जो निवेशकों को स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरतें पूरी करने में सक्षम बनाए। उल्लेखनीय है कि जिन डिजिटल मंचों पर ये नवाचार मौजूद हैं, उनके पास पूंजी कम है। चूंकि महामारी के समय हमें इनका लाभ मिला है, तो हम इनकी मदद से मजबूत स्वास्थ्य तंत्र बना सकते हैं।

 

सौजन्य - संध्या वेंकटेश्वरन, स्वास्थ्य-नीति विशेषज्ञ