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DevBhoomi Insider Desk
• Tue, 1 Feb 2022 5:01 pm IST


व्यंग्यः ज्योत में ज्योत मिलाते चलो


आज २६ जनवरी है. कैसी भी ठण्ड हो, कोहरा हो लेकिन साल भर मज़े करने वाले जनसेवकों, कर्मचारियों, महामहिम की कार के आगे-पीछे चलने वाले घोड़ों, सीमा सुरक्षा बल के ऊंटों की तो मज़बूरी है, परेड में जाना ही पड़ेगा. हम १६ साल तक दिल्ली में थे. कवि दिनकर के शब्दों में ‘भाड़ ही झोंका रहे दिल्ली में बारह साल आप’. तब स्कूलों के बच्चों को कैसे परेड की रिहर्सल के नाम पर ठिठुरते हुए इण्डिया गेट जाना होता था. सोच कर हमें तो आज रजाई में भी ठण्ड लगने लग जाती है. हम कभी परेड देखने नहीं गए.

हाँ, १८५७ के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की शताब्दी के उपलक्ष्य में १९५७ के स्वतंत्रता दिवस को ज़रूर स्कूल की तरफ से दिल्ली भेजे गए थे. पूरा कार्यक्रम तो नहीं देख सके क्योंकि न तो हमारे पास कोई पास था और न ही क़द भी इतना ऊंचा था कि उचक कर कुछ देख पाते. इस प्रकार कानूनी रूप से हम एक बार किसी राष्ट्रीय दिवस के कार्यक्रम में शमिल हुए, वैसे देख कुछ नहीं पाए. आज तो कोई ‘पास’ भी दे तो भी हमारे लिए छह सात घंटे किसी कार्यक्रम में रुकना संभव नहीं. पता नहीं, लोगों के गुर्दे कितने मज़बूत है.हमारे लिए तो छह-सात घंटे लघु शंका को रोक पाना कभी संभव नहीं हुआ.

तोताराम के लिए सर्दी, गरमी कोई बाधा कभी नहीं रही. वह ‘मन की बात’ की तरह निश्चित समय पर हाजिर हो जाता है. आज तोताराम गीत गाता हुआ प्रकट हुआ-


ज्योत में ज्योत मिलाते चलो

नफ़रत की गंगा बहाते चलो,

हमने कहा- अपने इलाके के प्रसिद्ध गीतकार भारत व्यास का ‘संत ज्ञानेश्वर’ फिल्म का गीत. लेकिन दोनों लाइनें ही गलत.तोताराम, ज्योत से ज्योत जलाई जाती है. जैसे दिल से दिल मिलाया जाता है. और उसी से प्रेम की गंगा बहती है.

बोला- मुझे भी पता है लेकिन अब ज्योत से ज्योत जलाने की नहीं बल्कि ज्योत में ज्योत मिलाने की नीति चल रही है. अब प्रेम की नहीं, हरिद्वार में गंगा के किनारे ‘धर्म संसद’ के नाम से घृणा का गटर खोला जा रहा है.

हमने कहा- वैसे भी ज्योत से ज्योत मिलाने का मतलब होता है मर जाना. जैसे पञ्च तत्त्व में विलीन हो जाना. आत्मा का परमात्मा में मिल जाना. राजस्थानी में कहें तो ‘पून में पून मिल गई’. अभी तो ९५ वर्षीय अडवानी जी ही ‘भारत रत्न’ की आस में बैठे हैं तो हमें भी दो-पांच महिने नब्बे साल में डेढ़ गुना हो जाने वाली पेंशन लेने दे.

बोला- मेरा संकेत उस तरफ नहीं था, तुम जियो हजारों साल, साल के दिन…….मेरा कहना तो यह था कि जैसे आजकल स्पष्ट बहुमत वाली सरकार ‘एक देश : एक चुनाव’, ‘एक देश : एक भाषा’,एक देश : एक टेक्स जैसे नारे दे रही है वैसे ही अब ‘एक देश : एक ज्योति’ क्यों नहीं ? जब संसद नई, तो ‘स्मारक’ भी नया हो. अब तो इण्डिया गेट के बांग्लादेश युद्ध के शहीदों की याद में बनी ‘जय जवान ज्योति’ की तरह गाँधी की समाधि पर जल रही ज्योति को भी मोदी जी के ड्रीम प्रोजेक्ट युद्ध स्मारक वाली ज्योति में मिला दिया जाना चाहिए.

हमने कहा- इसके बारे में तो प्रज्ञा ठाकुर से पूछना पड़ेगा कि उस विभाजन करवाने वाले, हिन्दू विरोधी. चतुर बनिए की ज्योति को शहीदों की ज्योति के साथ मिलाया जा सकता है या नहीं ? हाँ, परम देशभक्त नाथूराम जी गोडसे वाली ज्योति को इसमें मिलाने की बात और है.

वैसे यदि तेरे देशभक्त नेता और तू ‘शहीद स्मारक’ और ‘युद्ध स्मारक’ में कुछ अध्ययन करोगे तो फर्क पता चलेगा. क्या इण्डिया गेट पर बांग्लादेश के शहीदों की जवान ज्योति को यहीं, इसी तरह रहने दिया जाता तो कोई बड़ा फर्क पड़ रहा था ?

बोला- उस स्मारक से एक बड़ा निर्णायक युद्ध जीतने वाली इंदिरा गाँधी का नाम याद आ जाता है जिसके सामने आज के बौने नेता तो क्या इस देश के सबसे बड़े नेता भी ओछे पड़ जाते हैं.

हमने कहा- तब कोई बात नहीं. हम तो समझे थे कि मोदी जी मितव्ययिता की दृष्टि से सभी ज्योतियों को एक ज्योति में विलीन कर रहे हैं.

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स