सुनीता अपनी आम जिंदगी में ऊब रही हैं। पर पता नहीं क्यों? बस कुछ अच्छा नहीं लग रहा। एक जैसा काम, वही लोग और एक-सी बातें। जीवन में कुछ रोमांच ही नहीं। उबाऊपने का यह एहसास दिनभर में कई बार कचोटता है। जितनी लंबी हमारी बोरियत होती है, उदासी भी बढ़ती चली जाती है। कई बार उकताकर कह उठते हैं कि बाकी सही हैं, शायद हम ही बोर हैं! वजह जो भी हो, बोरियत कई तरह से हम पर असर डालती है।
बोरियत बुरी चीज नहीं है। गलत उसे लंबे समय तक पकड़े रहना है। मन कहीं टिकता ही नहीं हमारा। ऐसा तो नहीं, उंगलियों की तरह दिल और दिमाग भी टच स्क्रीन के आदी हो गए हैं? हर समय कुछ नया स्क्रॉल करने की बेचैनी खुश नहीं रहने देती।
दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इंसान हो जो कभी बोर न हुआ हो। बोर होना इंसान की फितरत है। पशु-पक्षियों को कभी बोर होते नहीं देखा गया। बोर होने का कौशल केवल मनुष्य तक ही सीमित है। बल्कि कहना चाहिए यह वह प्रतिभा है जो मनुष्य को दूसरे प्राणियों से खास बनाती है। बोर सभी होते हैं, बच्चों से लेकर बूढों तक। स्त्रियों से लेकर पुरुष तक, बेरोजगारों से लेकर कामकाजी तक। कुछ लोग काम करते-करते बोर हो जाते हैं, कुछ आराम करते-करते बोर होने लगते हैं। कुछ लोगों में बोरियत एक स्थाई भाव होता है। उनमें कूट-कूटकर बोरियत भरी होती है तो कुछ लोगों की मानसिकता में यह अस्थाई रूप से डेरा डालती है। लेकिन कभी आदमी का पूरी तरह से पीछा नहीं छोड़ती।
हैरत की बात है कि बावजूद इसके बोरियत मनोविज्ञान और समाजशास्त्र में हमेशा उपेक्षित विषय रहा है। लेकिन बोरियत के मनो-दैहिक लक्षण काफी साफ होते हैं। मानसिक रूप से यह भावनाओं का खालीपन है। यह मन की एक उबाऊ और उदासीन दशा है। दैहिक रूप से बोर स्थिति में हम सक्रिय नहीं रहते। घिसट-घिसटकर चलते हैं। नियमित रूप से जम्हाइयां लेते हैं। इस स्थिति में ऊपरी तौर पर आदमी बेशक शांत दिखाई देता है किन्तु उसका मन अशांत होता है। जो करना चाहता है, कर नहीं पाता, जो करता है वह उसे बोरियत के क्षेत्र में ढकेलनेवाला, अरुचिकर होता है। बोरियत का यही विरोधाभास है। किसी भी भाव की अनुपस्थिति है बोरियत। लेकिन इस भावनात्मक ‘खालीपन का भाव’ उसके जेहन में अपनी मौजूदगी बनाए रखता है।
सिगमंड फ्रायड के एक स्टूडेंट ने 1934 में ‘ऑन द सायकॉलजी ऑफ बोरडम’ आर्टिकल लिखा जो जर्मन में प्रकाशित हुआ था। जिसमें उन्होंने ‘सामान्य’ और ‘पैथोलॉजिकल’ बोरियत का अंतर बताया था। सामान्य बोरियत तब पैदा होती है जब हम वह नहीं कर सकते जो हम करना चाहते है या जब हम कुछ ऐसा करते हैं, जो हम नहीं करना चाहते हैं। पैथोलॉजिकल बोरियत में आदमी ऐसा करने में नाकाम रहता है क्योंकि वह अपनी सहज इच्छाओं को दबाता है। हम ज़िंदगी से कितने हताश और परेशान हैं कि छोटी-छोटी बातों पर बोर होने लगते हैं। ये सब भावनाओं के खालीपन के कारण होता है। बोरियत का एहसास हमारे उत्साह और जोश को खत्म कर देता है।
मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि हर काम में बोर होना हमारी मानसिक और शारीरिक सेहत के लिए खतरनाक हो सकता है। हर काम में बोर होने वाला इंसान नशा, शराब, सिगरेट का सेवन करना शुरू कर देता है। हर काम में बोर होनेवाले की जीने की इच्छा घटती रहती है। ऐसे लोगों का इम्यून सिस्टम कमजोर होता रहता है। चेहेरे की सुंदरता और चमक घटने लगती है। चिड़चिड़ापनआता है, खाना खाने का मन नहीं करता।