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DevBhoomi Insider Desk
• Thu, 12 May 2022 5:35 pm IST


खुद बदलेंगे, तभी राजनीति भी बदलेगी


जिनको राजनीति में रत्ती भर भी दिलचस्पी है, वे इन दिनों एक सवाल का जवाब पाने की कोशिश में हैं कि प्रशांत किशोर के जरिए बिहार की राजनीति कितना बदलेगी? चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने बिहार में राजनीतिक बदलाव का बीड़ा उठाया है। वह अक्टूबर से गांधी जी की कर्मभूमि चंपारण से तीन हजार किलोमीटर की पदयात्रा शुरू करने जा रहे हैं। इस यात्रा का मकसद उन्होंने लोगों को यह समझाना बताया है कि बिहार आज भी अनेक मानकों पर क्यों पिछड़ा हुआ है? हालांकि यह वही प्रशांत किशोर हैं, जिन्होंने 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नारा गढ़ा था, ‘बिहार में बहार है, नीतीशे कुमार है’। लेकिन यहां इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि एक चुनावी रणनीतिकार के रूप में प्रशांत किशोर का करियर कामयाबी भरा रहा है और उनके हिस्से 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत की इबारत लिखने से लेकर आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में अलग-अलग समय पर अलग-अलग पार्टियों को सत्ता के पायदान तक पहुंचाने का श्रेय भी है।

हालांकि अभी तक चेहरा दूसरे का हुआ करता था और रणनीति प्रशांत किशोर की, लेकिन अब चेहरा भी प्रशांत का ही होगा और रणनीति भी उन्हीं की। यहीं से यह सवाल भी खड़ा होता है कि वह जितने सफल रणनीतिकार माने जाते हैं, क्या उतने ही सफल राजनेता भी हो सकते हैं? रणनीतिकार के रूप में वह जनता की कसौटी पर नहीं होते थे, लेकिन नेता के रूप में वह जनता की कसौटी पर होंगे। वैसे यहां यह सवाल उतना अहम नहीं है कि प्रशांत किशोर एक राजनेता के रूप में कामयाब होंगे या नहीं, सवाल अहम यह है कि उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों से बिहार के लोगों की सोच में क्या कोई बदलाव होगा? यह भी कि उन मुद्दों के जरिए बिहार की राजनीति में कोई बदलाव देखने को मिलेगा या नहीं?

उम्मीदें जगीं, लेकिन सपने टूटे
वैसे यह पहला मौका नहीं है जब राजनीति में बदलाव की कोई उम्मीद की जा रही है। अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग राज्यों में नए चेहरों और नए मु्द्दों के सामने आने से राजनीति के चाल, चरित्र और चेहरे में बदलाव की उम्मीद पहले भी कई दफे पाली जा चुकी है, लेकिन राजनीति में कोई बदलाव नहीं आया। उसके अपने ढर्रे पर चलते जाने की बात देखी जा रही है। इसके लिए राजनेताओं या राजनीतिक दलों पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता। इसके लिए अगर किसी को दोषी ठहराना ही है तो पहले खुद के गिरेबां में झांकना होगा। दरअसल राजनीति इसलिए नहीं बदली कि हम नहीं बदले। हम अपने ढर्रे पर चलते आए हैं। हमने अपने में कोई बदलाव करना जरूरी भी नहीं समझा। आज भी चुनाव में जीत का सबसे बड़ा फैक्टर जाति बनी हुई है। हम जाति मोह को नहीं छोड़ पाए हैं।

जिस क्षेत्र में जिस जाति का प्रभुत्व होता है, वहां पर उसी जाति का उम्मीदवार उतारना राजनीतिक दलों की, इसी वजह से मजबूरी बनी हुई क्योंकि हमारी पहली प्राथमिकता आज भी जाति को वोट देने की बनी हुई है। राजनीति में बाहुबलियों का बोलबाला भी इसीलिए बढ़ता जा रहा है क्योंकि हम उसे भी जाति के चश्मे से देखने लगे हैं। जाति का चश्मा लगाते ही जितने सारे बाहुबली, माफिया, अपराधी हैं, उनमें हमें अपना नायक दिखने लग जाता है। आज सभी दलों में इनकी मांग इसीलिए बढ़ती जा रही है कि उनकी जीत का ‘स्ट्राइक रेट’ सबसे ज्यादा हो चुका है। वे राजनीतिक दलों की मजबूरी हो गए हैं। राजनीतिक दलों को तो बहुमत का जादुई आंकड़ा चाहिए होता है। जिसमें जीतने की संभावना जितनी ज्यादा होती है, उन्हें ज्यादा से ज्यादा टिकट देना उनकी मजबूरी हो जाती है। जब चुनाव होता है तब अपनी जाति के प्रत्याशी की जीत-हार को हम अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लेते हैं।

खुद को बदलना पड़ेगा
मुद्दों पर आधारित बातें हमें अच्छी तो लगती हैं लेकिन वोट की कतार में लगने से पहले तक ही। वोट की कतार में लगते ही हमारा नजरिया बदल चुका होता है। राजनीतिक दलों ने हम सबकी कमजोरी को पकड़ लिया है। वे जान गए हैं कि हमें कैसे भरमाया जा सकता है। किसी भी राजनीतिक दल के दफ्तर में चले जाइए, आपको किसी भी शहर, गांव को लेकर यह जानकारी तो आसानी से मिल जाएगी कि उस इलाके में किस जाति-धर्म की कितनी-कितनी आबादी है, लेकिन इसका कोई रेकॉर्ड नहीं मिलेगा कि उस शहर-गांव में साक्षरता दर कितनी है, बेरोजगारी का अनुपात क्या है या स्वास्थ्य सुविधाओं की क्या स्थिति है।

उन्हें मालूम है कि वोट इसके आधार पर तो पड़ना नहीं है तो इन बातों का रेकॉर्ड रखने का क्या मतलब? 2014 के लोकसभा के चुनाव में एक तत्कालीन केंद्रीय मंत्री का यूपी में उनके निर्वाचन क्षेत्र में काफी विरोध हो रहा था। कहा यह जा रहा था कि वह अब 2009 के बाद 2014 में आए हैं। उनका कहना था कि यह विरोध प्रायोजित है। लेकिन मैंने उनसे जानना चाहा कि अगर वह अपने क्षेत्र में सक्रिय होते तो शायद उन्हें इस प्रायोजित विरोध का सामना नहीं करना पड़ता। केंद्रीय मंत्री का जवाब था कि अगर मैं पांच साल चौबीसों घंटे सक्रिय रहता तो भी मुझे चुनाव के मौके पर नए सिरे से ही अपने समीकरण बिठाने पड़ते। तो जब चुनाव के समय यह सारी मशक्कत करनी ही है तो फिर पांच साल क्यों सिरदर्द पाला जाए? राजनीतिक दलों को यह भी पता लग गया है कि हमें मुफ्त की चीजें खूब पसंद है। स्वाभाविक रूप से इसका भी चलन बढ़ गया है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स