आजकल देश में ही नहीं बल्कि यूरोप, अमेरिका सहित कई देशों में किसानों के आंदोलन चल रहे हैं। सब जगह समान मुद्दा है कि खेती करना आर्थिक दृष्टि से अब फायदे का सौदा नहीं रह गया है। लागत बढ़ती जा रही है और उपज के दाम में अस्थिरता है।
बाजार भरोसे: भारत के किसानों की मुख्य समस्या उपज की कम कीमत है। कृषि उत्पादों की कीमतें सरकारें अपने हिसाब से शुरू से ही तय करती रही हैं। जब देश में अनाज की कमी थी, तब सरकारें कुछ कीमत तय कर किसानों से जबरदस्ती खरीद कर लेती थीं। वही न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की शुरुआत थी। जब सरकार की जरूरत केवल सार्वजनिक वितरण प्रणाली तक सीमित हो गई, तो उसने उसके लिए अनाज खरीदने की जिम्मेदारी ली और बाकी के लिए किसानों को बाजार भरोसे छोड़ दिया।
सिर्फ गेहूं-धान: सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए केवल धान-गेहूं पर ही विचार किया गया। फिर उसकी अधिकतर खरीद पंजाब-हरियाणा से होने लगी। इसके परिणाम सामने हैं। पंजाब-हरियाणा में जमीन की उपजाऊ क्षमता काफी घट गई है और फसलों का विविधीकरण खत्म हो गया। इससे किसान को आर्थिक नुकसान भी उठाना पड़ा। वह कर्ज में डूब गया। विडंबना है कि जिस राज्य से ज्यादा खरीद होती थी, वहां का किसान ज्यादा आक्रोशित है।
नहीं मिला लाभ: पिछले 10 वर्षों में सरकार MSP में बढ़ोतरी कर रही है। पंजाब, हरियाणा के साथ ही राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी सरकारी खरीद बढ़ी है। किंतु देशभर के किसानों को इसका लाभ नहीं मिल रहा। सरकार ने गेहूं-चावल के साथ ही दलहन-तिलहन की भी MSP बढ़ाई है। मगर उसकी खरीद की व्यवस्था न होने के कारण बहुत बार किसान को MSP के नीचे ही उपज बेचनी पड़ती है। इन हालात में MSP में बढ़ोतरी का भी फायदा किसान को नहीं मिलता। कारण, उसकी कोई गारंटी नहीं है।
घाटे की GST: वहीं खेती में लगने वाली चीजों की कीमत पर सरकार का नियंत्रण नहीं है। इन चीजों और मजदूरी में औसतन दोगुनी बढ़ोतरी हुई है। बीज, उर्वरक, कीटनाशकों के दामों में भी भारी वृद्धि हुई है। उत्पादक होने के बावजूद किसान को इन चीजों पर GST भी भरनी पड़ती है, जो GST की मूल अवधारणा के विपरीत है। किसान को यह GST वापस मिलने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसके कारण उसकी जो लागत बढ़ी है, वह न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा ही आती है।
छोटे-मझोले किसान: किसानों की मांग ऐसी MSP की है, जो लाभकारी हो। अपने यहां छोटे और मझोले किसान सबसे ज्यादा हैं। उसके पास बेचने के लिए एक-दो फसल के अलावा अनाज होता ही नहीं। वे चाहते हैं कि कीमत मिलने का कुछ पक्का बंदोबस्त हो। वही गारंटी उसे चाहिए। सरकार कीमत तो घोषित करती है, पर वही कीमत उसे मिले, इसकी वह जिम्मेदारी नहीं लेती। साथ ही सरकार की आयात-निर्यात नीति भी इस समस्या को बढ़ाती है।
बने सिस्टम: आज अनेक विद्वान इस चिंता में दुबले हो रहे हैं कि समर्थन मूल्य की गारंटी देना संभव नहीं और देश की अर्थव्यवस्था पर इससे बोझ बढ़ेगा। किसान की साधारण, न्यायसंगत अपेक्षा यही है कि उसकी लागत पर लाभ जोड़कर उसे कीमत मिले। और उसे इससे कम कीमत पर उपज न बेचनी पड़े। यह बात नीतिकारों और विद्वानों को समझनी होगी। इस मसले का रास्ता ढूंढना होगा। किसान को कीमत की गारंटी देने के लिए हमें कई तरह के उपाय करने होंगे। सरकारी खरीद के साथ एक पूरा तंत्र विकसित करना होगा।
बढ़ें मंडियां: सरकार को छोटे बाजारों को प्राथमिकता से विकसित करना होगा। चार वर्ष पूर्व 20 हजार छोटी मंडियों को विकसित करने की बात बजट में की गई थी। यह एक अच्छा कदम है, मगर इस पर अमल नहीं हुआ। 2047 तक विकसित भारत का सपना साकार करने के लिए हम कृषि का विचार तो कर ही रहे हैं, किंतु उसे चलाने वाले छोटे व मझोले किसानों के हितों को ध्यान में रखना होगा, तभी सही मायने में भारत विकसित होगा।
सौजन्य : नवभारत टाइम्स