द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति पद के लिए भारी मतों से विजयी होना भारत के राजनीतिक इतिहास की बड़ी घटना है। उनकी जीत के कई मायने हैं और इसके दूरगामी प्रभाव भी दिखेंगे। द्रौपदी मुर्मू को एनडीए ने राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाया था। उनके नाम की घोषणा के बाद ऐसे हालात बने कि कई दलों को उनका समर्थन करना पड़ा। इनमें झारखंड मुक्ति मोर्चा, शिवसेना जैसे दल भी हैं। शायद ही किसी को भरोसा था कि एनडीए देश के इस शीर्ष पद के लिए एक आदिवासी को मैदान में उतार सकता है, वह भी महिला को। इसलिए ऐसा लगा कि विपक्षी दल के पास एनडीए के इस मास्टर स्ट्रोक की कोई काट नहीं थी। यह इस बात का संकेत है कि द्रौपदी मुर्मू को लोग देश के इस सर्वोच्च पद पर देखना चाहते हैं।
जमीन से जुड़ा व्यक्तित्व
द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के मयूरभंज जिले के रायरंगपुर गांव से आती हैं। यह बेहद पिछड़ा इलाका है। आदिवासी बहुल है। उन्होंने गरीबी देखी है, संघर्ष किया है और जमीन से जुड़ी रही हैं। वह धीरे-धीरे संघर्ष करते हुए आगे बढ़ी हैं। इसकी झलक उनकी राजनीतिक यात्रा पर एक नजर डालने से भी स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत पार्षद से की। इसके बाद वह विधायक बनीं। अगले कदम पर वह ओडिशा की नवीन पटनायक सरकार में मंत्री बनीं। फिर उन्हें झारखंड का राज्यपाल बनाया गया। और अब वह राष्ट्रपति पद की शपथ लेने वाली हैं।
द्रौपदी मुर्मू बिल्कुल सरल स्वभाव की हैं और बेहद संवेदनशील भी। झारखंड में जब वह राज्यपाल थीं, उस दौरान अखबार में एक खबर आई कि गरीबी के कारण एक मां अपने पांच साल के एक बच्चे को किसी को देना चाहती है। खबर पढ़ते ही उन्होंने घोषणा कर दी कि उस बच्चे को वह गोद लेंगी। उसके पढ़ने-लिखने की पूरी व्यवस्था करेंगी। उन्होंने उस बच्चे को राजभवन बुलाया और उसकी पूरी जिम्मेदारी ली।
द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने से ऐसे तो हर वर्ग में खुशी है, लेकिन आदिवासी समुदाय में खास उत्साह है। संथाल, मुंडा, भील, गोंड, हो, उरांव समेत तमाम जनजातियों में आत्मविश्वास बढ़ेगा। चुनाव प्रचार के दौरान जहां भी द्रौपदी मुर्मू गईं, उनका जोरदार स्वागत हुआ। अगर 2011 की जनगणना को आधार मानें, तो देश में आदिवासियों की आबादी 10.45 करोड़ है। इतनी बड़ी आबादी को हमेशा से लगता रहा है कि उसकी बात कोई नहीं सुनता। ऐसे में मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों के मन में अपेक्षाएं भी काफी जगी हैं। इस समुदाय की समस्याओं के संदर्भ में देखें तो मुख्य अपेक्षाएं समझा जा सकती हैं।
-आदिवासी समुदाय के सामने जल, जंगल और जमीन के मुद्दे प्रमुख हैं, जिनसे उनका जीवन जुड़ा है। वे मानते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों पर उनका पहला हक है। लेकिन सच यह है कि सबसे पहले अगर किसी को विस्थापित किया जाता है तो वे आदिवासी ही हैं।
-औद्योगिक विकास और बांध आदि से जुड़े प्रॉजेक्ट्स के लिए आदिवासियों की जमीन ले ली जाती है लेकिन पुनर्वास ढंग से नहीं किया जाता। सरकार ने आदिवासियों के लिए इस संबंध में कानून बनाए हैं, लेकिन उनका लाभ आदिवासी समाज को मिल नहीं पाता।
-एक बड़ा मुद्दा है सरना धर्म कोड का। देश के आदिवासी अपने लिए एक अलग सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं। यह मामला काफी समय से लंबित है। उनकी उम्मीद होगी कि अब इस पर पॉजिटिव फैसला होगा।
-आदिवासियों की जमीन बचाने के लिए कई राज्यों में कानून तो बने हैं (झारखंड में सीएनटी और एसपीटी एक्ट) हैं, लेकिन ऐसे कानून की धज्जियां उड़ती रही हैं और आदिवासियों की जमीन पर दूसरे लोग कब्जा करते रहे हैं। अब आदिवासी समुदाय यह अपेक्षा करेगा कि इन कानूनों को कड़ाई से लागू किया जाए।
-पेसा कानून को पूर्णत: लागू करने की भी बात उठेगी। संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची को कड़ाई से लागू करवाने की भी मांग आदिवासी समुदाय करेगा। इसकी अभी तक अवहेलना होती रही है।
-सच यह है कि वनाधिकार कानून तो बना है, लेकिन पूर्णत: लागू नहीं हुआ है। वन और वन उपज पर आदिवासियों के अधिकार को लेकर भी टकराहट होती रही है।
-आदिवासियों की जमीन के नीचे अरबों के खनिज हैं। इस वजह से भी उनकी जमीन ले ली जाती है और वे अपनी उसी जमीन पर मजदूरी करते हैं, खनन कार्य करते हैं। उस जमीन के मालिक नहीं रह जाते। ऐसे मामलों पर गंभीरता से संज्ञान लेने की अपेक्षा भी आदिवासी समुदाय करेगा।
द्रौपदी मुर्मू के अब तक के कार्य इस समुदाय की उम्मीदों का सबसे बड़ा आधार हैं। कुछ साल पहले जब वह झारखंड की राज्यपाल थीं, तब वहां जमीन संबंधी एक विधेयक लाया गया था। इस पर विवाद भी हुआ था। अंतत: मुर्मू ने उस विधेयक को राज्य सरकार को वापस कर दिया था।
सरकार की प्राथमिकता
बहरहाल, चुनौतियां तो रहेंगी ही, लेकिन पक्ष में यह बात है कि वर्तमान केंद्र सरकार की प्राथमिकता में आदिवासी हैं। नरेंद्र मोदी की सरकार में आदिवासियों को सम्मान दिलाने का बड़ा प्रयास हुआ है। इनमें आजादी की लड़ाई में योगदान करने वाले आदिवासियों के सम्मान में देश के कई राज्यों में म्यूजियम बनाने का काम पूरा हो चुका है। भगवान बिरसा मुंडा के जन्म दिन को देश भर में जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का फैसला भी केंद्र सरकार कर चुकी है। आने वाले दिनों में आदिवासी समुदाय को आगे बढ़ाने, उन्हें सम्मान दिलाने की योजनाएं आती रहेंगी। द्रौपदी मुर्मू के शीर्ष पद पर रहने से इस तरह की समस्याएं सुलझाने में मदद जरूर मिलेगी।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स