क्या देश ने आजादी दिलाने का कांग्रेस का अहसान चुका दिया है? सवाल अजीब है। कांग्रेस तब हर तरह की विचारधारा के लोगों का जमावड़ा थी। यह कांग्रेस के उसी विचार की प्रासंगिकता है कि चुनावी लोकतंत्र में अपने सबसे उदास दिनों में भी उसका जिक्र होता है, फिक्र होती है। यह फिक्र दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का इत्र भी है, जिसकी महक रहनी चाहिए। इतिहास के विद्यार्थी के रूप में इस बात को देखना समझना-चाहता हूं क्योंकि देश की सोच कुछ क्षणों, महीनों या सालों में नहीं बनती। सदियों में, हजारों सालों में भी राष्ट्र की चेतना या उपचेतन मस्तिष्क रूप लेता है। किसी दल की चेतना का भी कमोबेश यही मिजाज है।
लगभग 62 साल कांग्रेस के नेतृत्त्व में चले और सफल हुए उस स्वतंत्रता आंदोलन का नॉस्टेल्जिया और धन्यवाद भाव क्या सौ साल भी नहीं बच पाया? खैर, आजादी के बाद नए भारत या अपनी सरकार से जनता की उम्मीदें और अपेक्षाएं बहुत ज्यादा थीं, शायद कोई और भी देश संभालता तो भी जनता इतनी ही शिकायती रहती। दुनिया के इतिहास में ऐसे उदाहरण भी कम ही हैं कि आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाला समूह आजादी के बाद राजनीतिक दल के रूप में परिवर्तित हो और लंबे समय तक सबसे बड़ा प्लेयर या मुख्य प्लेयर्स में से एक बना रहे। इस लिहाज से कांग्रेस की निरंतरता और उपस्थिति बहुत महत्वपूर्ण है।
ऐतिहासिक रूप से यह भी गौर किए जाने लायक है कि आजादी के बाद शायद यह दूसरा ही अवसर है कि शीर्ष नेतृत्व एक स्त्री हाथों में है। यानी इंदिरा गांधी के बाद सोनिया गांधी। इस प्रक्रियागत स्थिति के कारण, स्वरूप और परिणाम भी पुरुष नेतृत्व से कैसे अलग हो सकते हैं, राजनीतिशास्त्रियों के लिए शोध का विषय होना चाहिए। इसमें भविष्य के लिए रोचक संदेश और निष्कर्ष छुपे हो सकते हैं। कांग्रेस ने आजादी के बाद शून्य से इस देश को खड़ा किया। इस प्रक्रिया में कुछ भूलें, गलतियां भी हुई ही होंगी। तो क्या मानें कि जनता की नजर में देश को खड़ा करने से ज्यादा बड़ी वे गलतियां हो गई हैं? और देश उन्हें माफ करने के मूड में नहीं हैं?
आजादी के आंदोलन की जरूरत थी- आंदोलन का जनाधार व्यापक बनाना और इस लिहाज से कांग्रेस की जरूरत थी। तो रणनीतिक रूप से उसने विविधताओं को हवा नहीं दी, समानताओं को तरजीह दी। महादेश के नागरिकों की विविधताएं दरसअल उनकी निजताएं थीं, पहचानें थीं। उन निजताओं और पहचानों को अंग्रेजों के विरुद्ध एकल भारतीय पहचान में समाहित किया गया। यही कांग्रेस का डीएनए बन गया, जो आजादी के बाद भी जारी रहा, स्थायी भाव बन गया। निजताओं को संबोधित करने वाले नए दल बनते चले गए, उनकी चुनावी लोकतांत्रिक भूमिका धीरे-धीरे अलग-अलग रूप धरती गई।
बार-बार दोहराई जाने वाली बात है कि गांधी जी आजादी के बाद कांग्रेस को राजनीतिक दल के रूप में जारी रखने के खिलाफ थे। 1885 की बंबई की नीम-गरम सर्दियों में ए ओ ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना के बाद जो डीएनए विकसित हुआ, वह राजनीतिक दल का नहीं था। इसका रूपांतरण जब स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक दल में हुआ तो वह डीएनए उसमें कितना स्थानांतरित हुआ, यह सोचने या बहस का विषय हो सकता है। अमेरिका के प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री दंपती रुडोल्फ हर साल कुछ महीने जयपुर में रहने आते थे। जवाहरलाल नेहरू मार्ग पर अपने पद्मिनी प्रीमियर 118 एनई में वह घूमते थे। एक बार कोई 15 साल पहले एक सेमिनार में जब चाय पर कांग्रेस को लेकर उनकी राय पूछी, तो बोले, ‘कांग्रेस अपनी बुनियाद में राजनीतिक दल नहीं है, पर भारतीय लोकतंत्र के डीएनए में कांग्रेस घुलमिल गई है। मुझे यह निश्चित रूप से नहीं पता कि दल के रूप में हमेशा प्रासंगिक रहेगी या नहीं, पर भारतीय लोकतंत्र कांग्रेस के भाव से कभी अलग नहीं हो पाएगा।’
मुझे कांग्रेस के दो सबसे बड़े विघटन हरिपुरा कांग्रेस के बाद सुभाष बाबू के छोड़ने और इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस तोड़कर कांग्रेस (आई) बनाने में दिखाई देते हैं। इनमें पहला उतना असरदार नहीं था, जितना दूसरा। राजतंत्र में भी जब हारे हुए साम्राज्य का एक युवा उत्तराधिकारी साम्राज्य वापस हासिल करना चाहता है, उसके लिए आसान नहीं होता। लोकतंत्र में लंबे समय तक सत्ता में रही पार्टी जब जनादेश के अप्रत्याशित न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुकी हो, फिर से सत्ता हासिल करना एक पहाड़ चढ़ने से भी ज्यादा दुष्कर हो जाता है। केवल सत्ता की मलाई के हिस्सेदार समर्थक, नेता तो छिटक ही जाते हैं, साथ खड़े होने के नैतिक बल को भी संगठित और एकत्रित करना कौन सा कम मुश्किल होता है।
1957 में सी राजगोपालाचारी ने लिखा था कि एक दल लंबे समय तक सत्ता में रहे, असंगठित लोगों, अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण समूहों के विरोध को दबाया जाता रहे, तो सरकार टोटेलीटेरियन हो ही जाती है। थोड़ा और फ्लैशबैक में चलते हैं। 1937 और 1946 में ब्रिटिश राज में आम चुनाव हुए। इसके नतीजों से ज्यादा अहम थी मुस्लिम लीग की हार। देश का मिजाज यह था कि मुस्लिम प्रतिनिधि कांग्रेस के टिकट पर ज्यादा जीते। मुस्लिम लीग को मुसलमानों के बड़े तबके ने अपना प्रतिनिधि दल नहीं माना।
कॉलिन्स और लेपियर जब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के लिए लॉर्ड माउंटबेटन का लंबा इंटरव्यू कर रहे थे, उसमें भारतीय नेताओं खासकर कांग्रेस के नेताओं के मतांतर और दृष्टिभेद को उन्होंने महसूस किया, जो एक नए बनते हुए देश के हालात को ‘स्मूद’ सत्ता हस्तातंरण में अलग तरह से उन्हें डील करने पड़ रहे थे। यह भारत नामक महादेश की विविधताओं का बोनसाई था। और यह स्थिति उस व्यक्ति की थी, जो यह भी महसूस करता था- ‘इस वक्त मैं दुनिया का सबसे शक्तिशाली इंसान हूं।’
तो क्या कहा जा सकता है कि उस कांग्रेस और देश का हनीमून पीरियड बीत गया है? इसका जवाब भारतीय परीक्षा प्रणाली के अति लघुत्तरात्मक प्रश्न के रूप में असंभव है। तो इसे फिलहाल अनुत्तरित रखते हुए दूसरा पूरक प्रश्न जोड़ते हैं- क्या कांग्रेस फीनिक्स है? दोनों सवालों के जवाब हम सब भारतीयों को ढूंढने हैं!