जब भी राज्यसभा में नए लोगों के प्रवेश का समय आता है, उसे पूरी तरह से राजनीतिक उत्सव का रूप दे दिया जाता है। पे बैक टू द सोसायटी के साथ सामाजिक न्याय की धारा राजनीति में भुला दी जाती है। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की धारा दम तोड़ देती है, गांधी और आंबेडकर के अंतिम आदमी से जुड़े नारे तो राजनीतिक गलियारों में सुनाई भी नहीं देते।
हालांकि सवाल बहुत उभरते हैं और उनके जवाब भी दे दिए जाते हैं। ऐसा ही सवाल 90 के दशक में एसआर दारापुरी ने कांशीराम जी से किया था। दारापुरी तब उत्तर प्रदेश में डीआईजी थे, बाद में पीयूसीएल से जुड़े। ऑल इंडिया पीपल फ्रंट नाम से राजनीतिक पार्टी भी बनाई। 1993 में उत्तर प्रदेश में एसपी और बीएसपी की मिली-जुली सरकार थी। कांशीराम तब जयंत मल्होत्रा को खोज कर लाए थे। मल्होत्रा आला दर्जे के उद्योगपति थे। सामाजिक न्याय का नारा देकर जीतने वाली बीएसपी ने एक झटके में मल्होत्रा को राज्यसभा का सदस्य बना दिया। कांशीराम का उस समय जवाब था, ‘हमारी पार्टी के पास इस समय पैसा नहीं है, हमें धन की जरूरत है। इसलिए एक धनाढ्य व्यक्ति को हमने राज्यसभा में भेजा।’
मल्होत्रा ना दलित थे, ना पिछड़े और ना ही बीएसपी के मेंबर थे। लेकिन एसपी और बीएसपी के सत्ता गठबंधन को कोई एतराज नही था। एतराज था तब के पार्टी कार्यकर्ताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को। दलित समाज के बुद्धिजीवियों को भी एतराज था। बकौल चंद्रभूषण यादव, राज्यसभा चुनाव के लिए विशेष रूप से बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे राजनीतिक दलों ने जिन लोगों के नामों की घोषणा की, उनके बहुजन विरोधी निर्णय से दलित-पिछड़े समाज में बहुत ही निराशा हुई है।
कमोबेश यही हाल आज तक बना हुआ है। इस बारे में हाल ही में बिहार से प्रेम कुमार मणि ने लालू प्रसाद यादव को एक पत्र भी लिखा है। उनके अनुसार राष्ट्रीय हित में येन केन प्रकारेण भारतीय जनता पार्टी को सत्तासीन होने से रोकना था। लेकिन वह उस तरह से संभव ना हो सका। प्रयास जरूर हुए। वह आगे लिखते हैं, ‘आम जनता में यह संदेश गया है कि मलबे का मालिक बने रहने के चक्कर में आपने (लालू जी) पार्टी का नाश किया और समाजवादी विरासत को अपने परिवार की तिजोरी में बंद कर दिया।’ प्रेम कुमार मणि लंबे समय से राष्ट्रीय जनता दल से जुड़े रहे और पिछले दिनों एमएलसी भी रहे। कुछ लोगों का मानना है कि उनका नाम राज्यसभा का टिकट मिलने वालों की सूची में नहीं है, इसलिए यह सब हो रहा है।
बात कुछ भी हो, पर इतना तो साफ है कि पिछले लगभग एक दशक से बहुजन समाज के मतों से सरकार बनाने वाली पार्टियों के चाल-चलन में अंतर आया है। चाहे बीएसपी के दलित-जन से सर्वजन की ओर मुड़ने की बात हो या फिर एसपी प्रमुख अखिलेश यादव की परशुराम की मूर्ति बनाने की घोषणा की। गाजियाबाद से वरिष्ठ चित्रकार डॉ. लाल रत्नाकर के अनुसार शिक्षा, साहित्य, कला और खेल आदि में भी हाशिए की प्रतिभाओं को बहिष्कृत किया जाता रहा है। विपक्षी दल भी बहुजनों के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, जो निराशाजनक है। राज्यसभा में दलित-पिछड़ों को क्यों नहीं लिया जाना चाहिए? नागपुर विश्वविद्यालय के डॉ. आंबेडकर विचारधारा विभाग के प्रमुख रहे डॉ. आगलावे का भी मानना है कि राज्यसभा में दलित लेखकों, साहित्यकारों, कलाकारों को लिया जाना चाहिए। पर राज्यसभा के लिए दलितों के ऐसे नामों पर कौन विचार कर रहा है? अभी पंजाब से आम आदमी पार्टी ने राज्यसभा के लिए पांच लोगों को टिकट दिया, जिनमें से न कोई दलित था न पिछड़ा।
वैसे खबर है कि बीजेपी ने थावर चंद गहलोत सहित छह उम्मीदवार दलित एवं पिछड़े समाज से लिए हैं। लेकिन नियमित 245 सदस्यों में से 12 को कला, साहित्य, ज्ञान और अन्य सेवाओं में योगदान के लिए राष्ट्रपति नामित करते हैं। बीते 70 वर्षों में 10 दलित भी शायद ही इस कोटे से राज्यसभा में जा पाए होंगे। इसलिए नहीं कि राज्यसभा में आरक्षण नहीं है, बल्कि इसलिए क्योंकि धन देने वालों के बीच एक आम दलित और उसकी क्षमता
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स