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DevBhoomi Insider Desk
• Wed, 2 Feb 2022 6:16 pm IST


जब लखनऊ ने रेख्ती का ‘रंगीन’ दौर देखा


मिर्जा गालिब का एक बड़ा ही लोकप्रिय शेर है- रेख्ता के तुम ही उस्ताद नहीं हो गालिब, कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था। अवध के बड़े-बुजुर्ग अपनी अगली पीढ़ियों को यह बताने के लिए इसको उन्हें सुनाते हैं कि उर्दू का पुराना नाम रेख्ता है, जो 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक कम या ज्यादा किसी न किसी रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है।

मूड में हुए तो मजाक करते हुए वे यह भी बताते हैं कि गालिब ने किसी फकीर से मीर की एक नज्म क्या सुन ली, बेचारे ‘हम ही हम हैं’ का दावा नहीं कर पाए। लेकिन इसी रेख्ता से निकली रेख्ती के उस्ताद सआदत यार खां ‘रंगीन’ (1757-1835) को ऐसा कोई दावा करने की जरूरत ही नहीं पड़ी, क्योंकि उन्होंने ही रेख्ती का निर्माण भी किया और उसे उरूज पर भी ले गए।

प्रसंगवश, रेख्ती ‘जनाना लहजे वाली उर्दू शायरी’ का नाम है, जो नवाबों के वक्त लखनऊ में खूब पली-बढ़ी, भले ही कई बेकद्रे उसमें की गई शायरी को नाक पर हाथ रखकर पढ़ते थे। उसकी कद्र करने वालों के मुताबिक वह अपने वक्त के स्त्री-विमर्श की एकमात्र वाहक थी। और बात है कि उसका स्त्री विमर्श वक्त से पहले आने और बेगमों के महलों की चहारदीवारी की छोटी-सी दुनिया में ही पलने-बढ़ने के कारण अपनी सुगंध बहुत दूर तक नहीं फैला सका। इसके बावजूद कि स्त्री भावनाओं की अभिव्यक्ति में उसका कोई मुकाबला नहीं था।

पहले इन अभिव्यक्तियों में बेगमों के सुख-दुख और उनके महलों के आसपास के माहौल को ही तवज्जो दी जाती थी। लेकिन बाद में बेगमों की खादिमाओं ने इनको बेगमों से ज्यादा हुनरमंदी से अपनाया तो इसके मुहावरों का विस्तार हुआ। तब बात उसके चटपटेपन व दिलजोई तक ही नहीं रह गई। अवध दरबार के कई बेहतरीन शायरों ने भी रेख्ती की ओर आकर्षित होकर स्त्रियोचित नज्में व गजलें कहीं।

‘रंगीन’ इन सारे शायरों के इकलौते उस्ताद थे, लेकिन बाद में इंशाअल्ला खां ‘इंशा’ (1756-1817) ने उनकी जगह ले ली। इंशा मुर्शिदाबाद में पैदा हुए, मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय के वक्त दिल्ली आए और नवाब आसफउद्दौला के वक्त लखनऊ। लखनऊ में उन्होंने मिर्जा सुलेमान शिकोह के दरबार के कई विद्वानों से सायास दो-दो हाथ कर अपना सिक्का जमाया। फिर नवाब सआदतअली खान के दरबार में आ गए, लेकिन निभा नहीं पाए तो उनकी नाराजगी भी झेली।

कहते हैं कि इंशा चतुराई में तो अपना सानी नहीं ही रखते थे, मसखरी भी लाजवाब करते थे। मसखरी के कारण कई बार अपमानित होने के बावजूद उन्होंने ‘रानी केतकी की कहानी’ लिखी तो ‘दरिया-ए-लताफत’ नाम से उर्दू का व्याकरण भी रचा। उनकी ‘रानी केतकी की कहानी’ उर्दू लिपि में थी, लेकिन बाबू श्यामसुंदर दास उसे हिंदी की पहली कहानी करार दे गए हैं।

बहरहाल, जब तक इंशा का जलवा रहा, रेख्ती अपने अच्छे दिन देखती रही। उनके बाद ‘जान साहब’ ने, जो बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के बेहद मुंहलगे शायर थे, रेख्ती में अपना दीवान लिखा। इनकी बाबत लखनऊ में किस्सा प्रसिद्ध है कि एक बार रमजान का महीना जेठ-वैशाख की भीषण तपिश के बीच पड़ा तो बादशाह नसीरुद्दीन हैदर ने अपनी नाजुकमिजाजी के बावजूद किसी मौलाना के कहने पर रोजा रख लिया। लेकिन सहरी के बाद डेढ़ पहर ही बीते थे कि भूख-प्यास से बेचैन होने लगे और उनकी तबीयत बिगड़ने लगी।

फिर क्या था, महल में हाहाकार-सा मच गया। ‘जान साहब’ को खबर हुई तो वह स्त्री का-सा रूप धर और लचकेदार दुपट्टा ओढ़कर सुल्तानी ड्यौढ़ी जा पहुंचे। वहां फटाफट पीनस से उतरे और जब तक कोई रोकता-टोकता, बादशाह के गोशेखाने में दाखिल हो गए। उनकी बलाएं लीं और रेख्ती में कहा, ‘मैं न कहती थी कि न रख, मैं तेरे वारी रोजा। बंदी रख लेगी, तेरे बदले हजारी रोजा।’

यों, ये पंक्तियां ‘रंगीन’ के शेर ‘देख पंसूरे में तारीख बता दे मुझको, अब के आ तो जी रखूंगी मैं हजारी रोजा’ की भौंडी-सी नकल थीं, फिर भी उन्होंने बादशाह का रोजा तोड़वा दिया। लेकिन जान साहब के बाद रेख्ती के बुरे दिन शुरू हुए तो नवाबों के बुरे दिनों की तरह अंतहीन हो गए। फिर तो न नवाबी बच पाई और न रेख्ती।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स