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• Thu, 18 Mar 2021 3:07 pm IST


लोग उन्हें कडपा की मदर टेरेसा कहने लगे हैं


कई लोग उन्हें नूरी परी कहते हैं। किसी-किसी के लिए वह ‘कडपा की मदर टेरेसा’ हैं। मगर वह तो उन्हीं मूल्यों को जी रही हैं, जो उन्हें विरासत में मिले हैं। आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में पैदा नूरी परवीन की परवरिश एक ऐसे खानदान में हुई, जो अवाम की खिदमत पर दशकों से ईमान रखता आया है। दादा नूर मोहम्मद 1980 के दशक में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हुआ करते थे। साल 1986 में दुनिया से रुखसत होते वक्त बेटे मोहम्मद मकबूल को वह सिर्फ दुआएं और नसीहतें दे गए थे। दुआएं बेहतर इंसान बनने की और नसीहतें मजलूमों की खिदमत से कभी मुंह न मोड़ने की। बेटे ने पिता के क्षेत्र को तो नहीं अपनाया, क्योंकि सियासत तब तक नई चाल-ढाल में ढल चुकी थी, मगर उनकी नसीहतों का मान हमेशा रखा।

मोहम्मद मकबूल ने अपना छोटा-मोटा कारोबार शुरू किया और तीनों बच्चों को तालीमयाफ्ता बनाना उनकी प्राथमिकता में सबसे ऊपर आ गया। नूर जब बहुत छोटी थीं, तभी उनकी मुलाकात अपने करियर से हो गई थी। सिनेमा का नाम तो उन्हें नहीं पता, मगर टीवी पर आ रही उस फिल्म का एक दृश्य उनकी आंखों में हमेशा के लिए पैबस्त हो गया था। सफेद ऐप्रन में ऑपरेशन थिएटर में घुसते एक डॉक्टर के आगे जुडे़ कई हाथ और फिर उस पर दुआएं बरसाते गरीब परिजन। नूरी के मन में डॉक्टर बनने की हसरत तभी से पलती रही। चौथी जमात के बाद आगे की पढ़ाई के वास्ते उन सबको विजयवाड़ा आना पड़ा। यहां पर उर्दू माध्यम स्कूल में दाखिला भी मिल गया। लेकिन नूरी जब भी पिता से अपने सपने का जिक्र करतीं, वह यही कहते- बेटी, लड़कियों के लिए स्कूल शिक्षिका की नौकरी बहुत अच्छी होती है। नौ से पांच बजे की तय ड्यूटी और खूब इज्जत भी मिलती है। मगर नूरी तो अपने रब से एक ही मुराद मांगती आई थीं। और उनकी दुआ अर्श से असर भी ले आई। बात तब की है, जब नूरी कक्षा आठ में थीं। एक दिन उनकी मां की छाती में जोरों का दर्द उठा। घर वाले फौरन विजयवाड़ा के एक कॉरपोरेट अस्पताल में लेकर गए। उन्हें कार्डियोलॉजी विभाग में इलाज के लिए ले जाया गया। मगर वहां  एक पुरुष डॉक्टर बैठे थे। मोहम्मद मकबूल को थोड़ी हिचक हुई। उन्होंने महिला विशेषज्ञ को बुलाने के लिए कहा। मगर उन दिनों विजयवाड़ा में हृदय रोग विशेषज्ञ ही गिनती के थे, स्त्री और पुरुष का फर्क कौन देखता! यह बात नूरी के पिता को कुछ कचोट गई और उन्होंने उसी वक्त तय किया कि वे अपनी तीनों औलाद को डॉक्टर बनाएंगे। आगे वह इसमें सफल भी हुए।

बहरहाल, नूरी पढ़ने में जहीन तो थीं ही, शुरू से ही वह अपनी कक्षा की मॉनीटर भी रहीं, इसलिए उनका आत्मविश्वास लगातार मजबूत होता गया। हाईस्कूल की पढ़ाई उर्दू माध्यम के सरकारी स्कूल से हुई और उन्होंने इस माध्यम में पूरे जिले में टॉप किया था। इसके बाद इंटरमीडिएट में वह अंग्रेजी माध्यम के एक कॉरपोरेट कॉलेज पहुंचीं। भाषा का यह बदलाव आसान न था। संवाद तो टूटी-फूटी जुबान में भी कायम किया जा सकता था, मगर विज्ञान के पाठ्यक्रम को अंग्रेजी माध्यम में समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। पर जब लक्ष्य तय हो, तब माध्यम कब तक अड़चन बनता? नूरी ने इस मुश्किल मोर्चे को भी फतह किया और उन्हें अल्पसंख्यक कोटे से कडपा के फातिमा इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (फिम्स) में एमबीबीएस में दाखिला मिल गया। एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने के बाद नूरी ने सोचा कि पीजी, डीएम करने में काफी साल लगेंगे, फिर शादी और तमाम दूसरी जिम्मेदारियों में सेवा का उनका मकसद टलता चला जाएगा। उन्होंने तय किया कि पहले वह क्लिनिक शुरू करेंगी, उसके बाद ही कोई और बात सोचेंगी। 19 दिसंबर, 2019 की बात है। नूरी के दिमाग में ख्याल आया कि क्यों न 10 रुपये की फीस के साथ अपनी क्लिनिक शुरू करें! नूरी ने इस पर अपने सीनियर डॉक्टरों और दोस्तों से सलाह-मशविरा किया। सबने इस आइडिया की सराहना की, कुछ ने आगाह भी किया कि इस विचार के साथ जीने के लिए बहुत धैर्य और साहस की जरूरत पडे़गी। अंतत: फरवरी 2020 में दवाखाने और जांच-घर के साथ तीन बिस्तरों वाला ‘डॉ नूरी हेल्थकेयर’वजूद में आ गया। मगर मार्च में लॉकडाउन लग गया। नूरी ने स्थानीय प्रशासन, पुलिस से बात की। उन्हें कहा गया कि आप क्लिनिक खोल सकती हैं। इस दौरान, जब कॉरपोरेट अस्पतालों के डॉक्टर वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से इलाज कर रहे थे, तब नूरी की क्लिनिक में गरीब मरीजों का तांता लगा रहता। कुछ का रोग तो भूख से जुड़ा मिलता। नूरी उनकी नब्ज भी टटोलतीं और उनके खाली पेट को भरने की व्यवस्था भी करतीं। शुरू-शुरू में तो लोगों को यकीन नहीं होता, पर महज दस रुपये फीस लेने वाली इस युवा डॉक्टर को अब दम लेने की भी फुरसत नहीं मिलती है। ऐसी सेवाभावी डॉक्टर पर कडपा, विजयवाड़ा, आंध्र ही नहीं, पूरे हिन्दुस्तान को नाज होना चाहिए।

सौजन्य :  चंद्रकांत सिंह