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• Wed, 24 Apr 2024 1:36 pm IST


जीवन को खूबसूरत बनाती है सैलून की कुर्सी


छब्बू की जानकारी वाली दुनिया बहुत सरल थी। वह कभी बनारस के पश्चिम में प्रयागराज से आगे और पूरब में बिहार के गया से पीछे नहीं गए। पढ़े वह थे नहीं और इटैलियन रेस्तरां तब बनारस में खुले नहीं थे। ऐसे में उन्होंने कभी इटली का नाम तक नहीं सुना था। इससे जाहिर है कि वह जिस तरह चौराहे पर, सड़क किनारे खुले आसमान के नीचे लोगों के दाढ़ी-बाल बनाते उसे ‘इटैलियन सैलून’ नाम उन्होंने तो दिया नहीं था। उन्हें पता भी नहीं था कि उनके बैठने वाली जगह को यह नाम मिला हुआ है। वह रोज सुबह टीन का अपना बक्सा लेकर, जिसमें एक नाई के सारे हथियार मौजूद होते, अपनी जगह पहुंच जाते। धूप कड़ी होती तो दो ईंटों के बीच में फंसाकर काले रंग का बड़ा वाला छाता लगा देते, ताकि ग्राहक को थोड़ी ओट हो जाए। शेविंग करनी होती, तो ग्राहक को ईंट पर बैठाते और अगर बाल काटना होता, तो खुद ईंट पर बैठते। शीशा ग्राहक को खुद पकड़ना होता था। सीटों वाले सैलून आम होने के पहले खूब दबदबा था ऐसे ‘इटैलियन सैलून’ का। काशी से लेकर कोलकाता तक, कुछ ऐसे सैलून आज भी मिल जाएंगे।

छब्बू अब दुनिया में नहीं रहे। उनका ‘इटैलियन सैलून’ भी अब नहीं है। सड़क चौड़ी होने के बाद वहां फुटपाथ बन चुका है। उसी बाजार में अब कई सारे सैलून खुल चुके हैं, एसी वाले। जमाना बदल गया है, लेकिन आनंद जो एक सैलून में जाकर मिलता है, वह अब भी पुराना वाला ही है। इनका इतना गहरा असर होता है हम पर कि खाने के लिए भले नए रेस्तरां में चले जाएं, कपड़े किसी भी दुकान से खरीद लें, लेकिन भरसक कोशिश होती है कि सैलून पुराना वाला ही हो। यह रिश्ता बनते-बनते बनता है। आखिर जिस उस्तरे के सामने सिर झुकाना है, उस पर यकीन पहली बार में आएगा कैसे! लेकिन यह भी है कि जब भरोसा जम जाता है, तो कोई शंका नहीं रह जाती। फिर चाहे जितनी लंबी वेटिंग हो, इंतजार करना गवारा होता है, सैलून बदलना नहीं। और जब शहर छूटता है, तो नई जगह वीकेंड पर पहली तलाश किसी अच्छे सैलून की ही होती है। वैसे अचरज हो सकता है कि पश्चिम में जब पहले-पहल सैलून खुला, तो उसका दाढ़ी-बाल से कोई कनेक्शन नहीं था। ये जगहें समाज के संभ्रांत लोगों के रिलैक्स होने की थीं। जहां लोग पीते-पिलाते, दांव लगाते। रोल बदल चुका है, लेकिन देखा जाए तो रिलैक्स लोगों को सैलून आज भी कराते हैं। इनकी कुर्सी पर बैठते ही तनाव गायब हो जाता है कुछ देर के लिए। जब सिर पर पानी की फुहारें पड़ती हैं, तो बाहर मौसम कितना भी गर्म हो, अंदर माहौल सुहाना ही बनता है। फिर शुरू होती है कैंची की धुन।

कैंची चलती है और सीट पर बैठे शख्स में यह आत्मविश्वास बढ़ता है कि इस काट-छांट के बाद वह और निखरकर निकलेगा। तब सैलून की वह कुर्सी और आरामदायक लगने लगती है। बंदा खास समझने लगता है खुद को। सैलून पर्सनैलिटी में चार चांद ही नहीं लगाते, बल्कि उसे वाकई बदलकर रख देते हैं। इनमें जाना और दाढ़ी-बाल पर खर्च किया हर पैसा एक तरह का निवेश है। इसका रिटर्न मिलता है कॉन्फिडेंस, लुक और खुशियों के रूप में। सैलून सिखाता है भरोसा करना। एक बार सीट पर बैठने के बाद हम अपने को पूरी तरह सामने वाले के हवाले कर देते हैं। अपने को छोड़ देते हैं उस पर, कि वह जो कर रहा है बेहतर ही होगा। एक बार जब यह रिश्ता पुराना हो जाता है, तो फिर बताने की भी जरूरत नहीं पड़ती कि हम चाहते क्या हैं। बालों की हालत देख समझ जाता है सैलून वाला और तमाम बातें इशारों में होने लगती हैं। इसीलिए किसी विद्वान ने कहा है कि जब आप सही हेयरड्रेसर से मिलते हैं, तो दुनिया और भी खूबसूरत बन जाती है। और खूबसूरती का यह काम हमारी उम्मीद से भी पुराना है। करीब 30 हजार साल पुरानी Venus of Willendorf में मूर्ति के बाल स्टाइलिश ढंग से बंधे नजर आ रहे हैं। यानी जब यूरोप पत्थर युग में था, तब भी खास ख्याल रखा जाता था बालों का। उस वक्त आज जैसे सैलून तो होंगे नहीं, ‘इटैलियन’ वाले भी नहीं, लेकिन तय है कि जैसे भी सैलून रहे हों और उनका जो भी नाम रहा हो, उनमें आनंद वही आता होगा जो आज आता है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स