‘मेरा मानना है कि जो कोई किसी से किताब मांगे, उसकी जबान काट देनी चाहिए। और, जो किसी के मांगने पर किताब दे दे, उसका हाथ काट देना चाहिए। और जो कमबख्त, मांगी हुई किताब वापस लौटा दे उसका गला काट देना चाहिए।’ पुस्तक प्रेम पर यह फलसफा मैंने तीन दशक पहले अपने एक सीनियर नीरज कुमार से सुना था। उन्होंने किसी विद्वान को कोट करते हुए ये बातें कही थीं। हालांकि कुछ समय बाद खुद नीरज जी ने भी अपने किसी मित्र की पुस्तक मार ली और ऐसे गायब हुए कि मित्र ढूंढता ही रह गया। फिर उस समय की नगर पत्रिका में छपे लेख में इस पूरे प्रसंग का जिक्र करते हुए मित्र से यह कहकर माफी भी मांगी कि मेरे पास एक ही गर्दन है, और यही वजह है कि तुमसे मिल नहीं रहा।
पुस्तक प्रेम के उदाहरण वैसे मैं बचपन से देखता रहा हूं। पटना के पुनाईचक मोहल्ले में पड़ोस के एक भैया ने हम स्कूली बच्चों के सामने गर्व से बताया था कि ‘पटना की कोई ऐसी लाइब्रेरी नहीं है, जहां से मैंने किताब नहीं चुराई।’ इन बातों और दावों से बिलकुल अलग रूप में अपने प्रफेसर पिता का पुस्तक प्रेम मैं देखता था। उनकी पुस्तकों की अलमारी हम बच्चों की पहुंच से हमेशा दूर रहती थी। उसमें छोटा सा ताला लगा होता था। दसवीं में पहुंचने के बाद जब मैंने मां से इच्छा जताई और मां ने पिता से कहा, तो उन्होंने बुलाकर अपने हाथों से मुझे चाबी दी कि ‘अब तुम बड़े हो गए हो, खुद चुनो और पढ़ो, लेकिन ध्यान रहे, किताब जिस स्थिति में निकले, उसी स्थिति में, उसी जगह पर वापस रखी जाए।’ यह शर्त कितनी अहम थी, मुझे इसका अंदाजा उस वाकये से था जब मौसी के मांगने पर उन्होंने नया खरीदा एक उपन्यास उन्हें पढ़ने को दिया। जब मौसी ने वापस किया तो किताब का कवर बीच से इस तरह मुड़ा था कि ऊपर से नीचे तक निशान आ गया था। पिताजी ने मां को वह किताब देते हुए कहा, ‘इसे ऐसी जगह रख दीजिए कि मेरी नजर न पड़े। मैं इसे नहीं देख पा रहा, लगता है जैसे किसी ने मेरे चेहरे पर ऊपर से नीचे तक गहरी खरोंच मार दी है।’
बात पूरी नहीं होगी पिता के दोस्त और उन्हीं के कॉलेज में अंग्रेजी के प्रफेसर अर्धेंदु शेखर आनंद मूर्ति (जिन्हें हम मूर्ति चाचा कहते थे) का जिक्र किए बगैर। उनका यह परिचय भी महत्वपूर्ण है कि वह आचार्य शिवपूजन सहाय के बेटे थे। उनके पुस्तक प्रेम की इंतिहा पटना में 1975 में आई ऐतिहासिक बाढ़ के दौरान दिखी। मकान का पहला माला डूब चुका था, अफवाह थी कि छह फुट पानी और बढ़ेगा। सबकी सलाह थी कि मकान छोड़ सुरक्षित जगह चले जाना चाहिए। लेकिन उनका कहना था, ‘तुम सब लोग चले जाओ, पानी बढ़ा तो मैं यहीं अपनी इन किताबों के साथ डूब जाऊंगा, लेकिन इन्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा।’
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स