कुछ समय पहले तक कर्नाटक विधानसभा चुनाव के ज्यादातर सर्वेक्षण बता रहे थे कि बीजेपी के मुकाबले कांग्रेस को बढ़त मिली हुई है। लेकिन चुनाव प्रचार में बजरंगबली के प्रवेश ने सर्वेक्षण करने वालों और विश्लेषकों को नए सिरे से चुनावी माहौल का आकलन करने को विवश कर दिया है। कांग्रेस की बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा के साथ ऐसा लग रहा है जैसे पूरा चुनाव इसी पर केंद्रित हो गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभाओं में कह रहे हैं कि कांग्रेस ने श्रीराम को ताले में जकड़ा और अब बजरंगबली को बंद करने की बात कर रही है। हर सभा में जय बजरंगबली का नारा गूंज रहा है और प्रदेश में हनुमान चालीसा से लेकर हनुमान मंदिरों में पूजा-पाठ व अन्य कार्यक्रम होने लगे हैं। यह सब अस्वाभाविक नहीं है।
फिर वही गलती
कांग्रेस के कुछ नेता बीजेपी पर चुनाव के हिंदूकरण का भले आरोप लगाएं, यह अवसर उन्होंने स्वयं अपनी नासमझी से दिया है। क्या घोषणापत्र में बजरंग दल को प्रतिबंधित करने का मुद्दा डालने वाले मान रहे थे कि बीजेपी इसे यूं ही जाने देगी? अगर हां तो कहना पड़ेगा कि दुर्दशा के बावजूद कांग्रेस ने न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीति में आने के बाद देश के बदले मानस और माहौल को समझा, न अपनी गलतियों से सीख ली।
किसी के मन में कांग्रेस की दशा को लेकर संदेह हो तो वरिष्ठ नेता वीरप्पा मोइली और प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बयान और गतिविधियों पर एक नजर डालना काफी होगा।
– शिवकुमार इस मामले पर हंगामा बढ़ने के बाद मंदिर पहुंचे और घोषणा कर दी कि पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में जगह-जगह हनुमान मंदिर बनवाए जाएंगे और पुराने हनुमान मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया जाएगा। उन्होंने मैसूर में बजरंगबली की पूजा करने के बाद कहा कि हनुमानजी के सिद्धांतों को जवानों तक पहुंचाने के लिए विशेष कार्यक्रम भी आयोजित कराए जाएंगे।
– वहीं, वीरप्पा मोइली ने कहा कि बजरंग दल को प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव नहीं है और प्रदेश सरकार के पास इसका अधिकार भी नहीं है।
संघ से चिढ़
ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर कर्नाटक के वरिष्ठ नेता और प्रदेश अध्यक्ष तक को पता नहीं कि उनके घोषणापत्र में यह विषय है तो कांग्रेस के रणनीतिकार हैं कौन लोग? हालांकि, इस घोषणा में आश्चर्य की कोई बात नहीं। सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद संभालने के बाद से ही वे शक्तियां उनके इर्द-गिर्द एकत्रित होने लगीं थीं, जिनकी विचारधारा में संघ और बीजेपी को हर हाल में खत्म करने के साथ अपने किस्म का लेफ्ट लिबरल सेकुलर नीतियों का परिवेश कायम करना था। ऐसे लोग यूपीए शासनकाल में उनकी सलाहकार परिषद में थे। और जो सोनिया गांधी के पास नहीं पहुंच सके, उन्होंने राहुल गांधी के इर्द-गिर्द स्थान बनाया। इसके कुछ परिणाम साफ दिखाई दिए।
पहला, मुसलमानों की दशा पर सच्चर आयोग का गठन और उसकी रिपोर्ट इसी सोच की उपज थी।
दूसरा, गुजरात दंगों को केंद्र बनाकर मोदी विरोधी अभियान चलाया गया।
तीसरा, वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह को जेल जाना पड़ा।
चौथा, इशरत जहां मुठभेड़ को गलत साबित करने के लिए सीबीआई को लगा दिया गया, जिसका गृह मंत्रालय के तहत ही आने वाले आईबी से टकराव हो गया।
पांचवां, भगवा आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद, संघी आतंकवाद जैसी शब्दावलियां उत्पन्न की गईं। वहीं, झूठे मुकदमों और रिपोर्टों से ऐसे ताने-बाने बुनने की कोशिश हुई कि पूरा संघ परिवार ही मजहब आधारित संगठित हिंसा का आरोपी साबित हो जाए।
इनका ही प्रभाव राहुल गांधी के बयानों में दिखता है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान संघ के पुराने निकर वाले गणवेश को जलते हुए दिखाना या वीर सावरकर के विरुद्ध अपमानजनक भाषा का प्रयोग इसी सोच का प्रमाण है। पिछले लोकसभा चुनाव के लिए जारी घोषणापत्र में देशद्रोह कानून खत्म करने से लेकर अफस्पा हटाने तक के वायदों के बाद कांग्रेस की विचारधारा को लेकर कोई संदेह नहीं रहना चाहिए।
बेशक सारे कांग्रेसी इससे सहमत नहीं हो सकते। लेकिन जिनके हाथों में नेतृत्व है पार्टी की नीतियां उन्हीं के द्वारा निर्धारित होंगी और हो रही हैं। बार-बार कांग्रेस नेताओं द्वारा नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अपमानजनक शब्दों का प्रयोग या संघ और हिंदुत्व विचारधारा के सम्माननीय व्यक्तित्वों के विरुद्ध बयान नेतृत्व को खुश करने के लिए ही दिए जाते हैं। बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बात भी इसी सोच का विस्तार है।
2014 तक इस सोच और व्यवहार के विरुद्ध जनता की प्रतिक्रियाओं ने ऐसा वातावरण बनाया, जिसमें नरेंद्र मोदी बड़े समूह की उम्मीद बनकर सामने आए और बीजेपी ने लोकसभा में बहुमत प्राप्त किया। देश का मानस बदल रहा था और कांग्रेस का व्यवहार इसके विरुद्ध था। नरेंद्र मोदी का इतना लोकप्रिय और प्रभावी होना भारतीय राजनीति में पैराडाइम शिफ्ट का परिचायक था। पर कांग्रेस नेतृत्व के आसपास मौजूद लोग ऐसी तस्वीर पेश कर रहे थे, जिससे उसे सच समझ में आ ही नहीं आ सकता था। इसलिए पार्टी नेतृत्व बार-बार वही गलती दोहरा रहा है।
नाकाम रहे बैन
यह दुर्भाग्य है कि देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी इस तरह की घोषणाएं कर रही है। वीरप्पा मोइली ने ठीक ही कहा कि राज्य सरकार बजरंग दल पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती। वह सिर्फ केंद्र को प्रस्ताव भेज सकती है। देश के संविधान और कानून की समझ रखने वाले लोग घोषणापत्र बनाते तो ऐसी नासमझी नहीं करते। 6 दिसंबर, 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद कांग्रेस ने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाया था, जो न्यायालय में नहीं टिक सका। संघ पर भी तीन बार प्रतिबंध लगे और सरकार को मुंह की खानी पड़ी। बावजूद इसके, स्वयं को संघ, बीजेपी और इस तरह की विचारधारा का कट्टर विरोधी साबित करने के लिए कांग्रेस बार-बार ऐसी आत्मघाती हरकतें कर रही है।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स