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• Thu, 4 Mar 2021 4:20 pm IST


सेना के चंगुल से लोकतंत्र को बचाने की जद्दोजहद


म्यांमार में अपने लोकतांत्रिक अधिकार और निर्वाचित सरकार बहाल करने को लेकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे आंदोलनकारियों पर बीते रविवार वहां की सैन्य तानाशाह सरकार ने गोली चलवा दी जिससे 18 लोग मार डाले गए। जो बात इस खबर को खास बनाती है, वह यह कि ये सिर्फ एक घटना नहीं है। यह घटनाओं के लंबे सिलसिले की परिणति है।

वैसे यह विरोध प्रदर्शन तभी से जारी हैं, जब एक फरवरी को देश की नवनिर्वाचित संसद का सत्र शुरू होने से ठीक पहले सेना ने सत्ता पर अवैध कब्जा कर लिया। हालांकि सत्ता पर सेना का कब्जा म्यांमार के लिए नई बात नहीं है। 1948 में आजाद होने के बाद के इन सात दशकों में से करीब पांच दशक वहां सत्ता पर सेना ही काबिज रही है। मगर लोकतंत्र को सेना के चंगुल से निकालने की कोशिशों का भी लंबा और गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। त्याग और बलिदान से भरे इस संघर्ष के कारण ही सेना लोकतंत्र के लिए थोड़ा-थोड़ा स्पेस देने को मजबूर हुई।

21 वीं सदी के दूसरे दशक में शुरू हुई इस प्रक्रिया के तहत 2015 में निष्पक्ष चुनाव हुए और लोकप्रिय नेता आंग सान सू की विजयी हुईं। हालांकि चुनावों की ओर बढ़ने से पहले ही सेना ने खास संवैधानिक प्रावधानों के जरिए यह सुनिश्चित कर लिया था कि सत्ता पर उसकी पकड़ हर हाल में बनी रहे। इन्हीं प्रावधानों के चलते तगड़ा बहुमत पाने के बावजूद आंग सान सू की प्रधानमंत्री नहीं बन सकीं। यही नहीं, संसद की एक चौथाई सीट पहले से ही सेना के लिए रिजर्व थी। इन पर बाकायदा सैन्य अफसर नियुक्त किए गए। इस संविधान में बदलाव के लिए तीन चौथाई से ज्यादा मत चाहिए, जो सेना की रिजर्व सीटों के चलते कभी किसी पार्टी को मिल ही नहीं सकते।

जाहिर है, इस स्थिति में सरकार चलाना निर्वाचित सरकार के लिए आसान नहीं था। रोज-रोज के कामकाज में सेना की दखलंदाजी से बचा नहीं जा सकता था। बावजूद इसके, आंग सान सू की और उनकी पार्टी एनएलडी ने न केवल पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, बल्कि अपने प्रदर्शन से जनता को इतना संतुष्ट किया कि नवंबर 2020 में हुए चुनावों में मतदाताओं ने उन्हें पिछली बार से भी ज्यादा सीटें दे दीं।

इन चुनाव नतीजों ने सेना को चौंकन्ना कर दिया। उसे समझ में आ गया कि अब इस लोकप्रिय सरकार को अपने नियंत्रण में रखना अधिकाधिक मुश्किल होता जाएगा। सो चुनावों में धांधली का निराधार आरोप लगाते हुए उसने तख्तापलट कर दिया। मगर सेना समय की गति को समझने में नाकाम रही। उसे लगा कि सत्ता पर तो उसका कब्जा रहा ही है। एक बार हंटर फटकारने की देर है, सेना की शक्ति के सामने सिविलियंस की सिट्टी-पिट्टी गुम हो ही जाएगी। मगर इन दस वर्षों में म्यांमार के लोग लोकतंत्र का स्वाद चख चुके हैं। उनकी बढ़ी हुई लोकतांत्रिक चेतना इस हमले को बर्दाश्त नहीं कर सकती। दूसरी बात यह कि अब उनके पास सोशल मीडिया नाम का नया टूल है। तमाम सीमाओं के बावजूद यह टूल सूचनाओं पर सरकार का एकाधिकार भंग करने में सक्षम है।

इन दोनों कारकों ने म्यांमार में पिछले एक महीने से सेना की नाम में दम कर रखा है। एक फरवरी को उसने तख्तापलट की घोषणा की, और दो फरवरी से ही विरोध शुरू हो गया। 15 फरवरी आते-आते यह स्थिति हो गई कि सभी प्रमुख स्थानों पर सेना तैनात करके गिरफ्तारी का सिलसिला तेज करना पड़ा। 23 फरवरी को मांडले में फायरिंग में दो लोगों की मौत हुई और 40 प्रदर्शनकारी घायल हुए। मगर इन दमनकारी प्रयासों से आंदोलन और तेज हो गया। 27 फरवरी को देश भर में अलग-अलग घटनाओं में 18 लोगों के मारे जाने के बाद भी विरोध न थमा है और न कमजोर पड़ता नजर आ रहा है।

भले यह संघर्ष म्यांमार में चल रहा हो, इस पर नजर दुनिया भर की लोकतांत्रिक शक्तियों की टिकी है। इस लड़ाई से यह भी तय होना है कि 21वीं सदी में लोकतंत्र का भविष्य सत्तारूढ़ ताकतों की मर्जी पर निर्भर करेगा, या जनता की संकल्प शक्ति पर।


सौजन्य - नवभारत टाइम्स