‘बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले, मायके की कभी न याद आए, ससुराल में इतना प्यार मिले…’, ‘बाबुल का घर छोड़के बेटी पिया के घर चली…’, अपनी हिंदी फिल्मों में शादी के बाद होने वाली विदाई के ऐसे कितने ही गाने हैं, जो लड़की के शादी के रिश्ते में बंधते ही अपने पैदाइशी घर-परिवार से हमेशा के लिए जुदा होने की मुहर लगाते हैं। मतलब शादी हो गई, तो लड़की का अपने उस घर से, जहां उसने जन्म लिया, जिंदगी के बीस-पच्चीस साल बिताए, सोचना-समझना सीखा, उससे सारा ताल्लुक खत्म हो गया। अब उसके लिए जो है, वो वह नया घर है, जहां वह जा रही है। वैसे इसमें इन गीतकारों का भी कोई कुसूर नहीं है क्योंकि हमारे समाज में विदाई की रस्म के मायने ही यही है कि मां-बाप ने अपनी लाडली को एक नए घर-परिवार में विदा कर दिया। शादी के वक्त कन्यादान की रस्म भी इसीलिए होती है कि पिता ने अब बेटी की सारी जिम्मेदारी उसके पति को सौंप दीं। आखिर बेटियां तो होती ही पराया धन हैं। इसीलिए हाल ही में जब ऐक्ट्रेस दीया मिर्जा ने बिजनेसमैन वैभव रेखी संग अपनी शादी में कन्यादान और विदाई जैसी रस्में नहीं निभाईं, तो यह बात हर तरफ चर्चा का विषय रही।
दीया ने अपनी इस शादी में कई नई मिसालें पेश कीं। पहले तो उनकी शादी एक महिला पंडित ने कराई, उस पर उसमें न तो किसी का कन्यादान हुआ, न कोई विदा हुआ। ऐसे में बहुत से लोग इन परंपरागत रस्मों-रिवाज़ों के टूटने से हैरान थे, तो कई लिंगभेद को बढ़ावा देने और लड़की को एक ट्रांसफरेबल सामान साबित करने वाली इन पुरानी रस्मों को तोड़कर बराबरी की ओर मजबूत कदम बढ़ाने के लिए दीया की वाहवाही कर रहे थे। दीया को इसके लिए तारीफ मिलनी भी चाहिए, क्योंकि देखा जाए तो शादी यूं तो दो दिलों, दो इंसानों और दो परिवारों के मिलन का जश्न होता है, लेकिन पितृसत्तात्मक सोच वाली भारतीय परंपरा में कन्यादान, विदाई, शादी के बाद पति का सरनेम लगाने जैसी रवायतें कहीं न कहीं औरत को कमतर दिखाती हैं।
क्यों न दूल्हा जाए ससुराल!
मसलन कुछ साल पहले पीकू, विकी डोनर, पिंक जैसी नई विचारधारा की फिल्में बनाने वाले निर्देशक शूजित सरकार ने सोशल मीडिया पर विदाई को लेकर अपने ट्वीट से एक नई बहस छेड़ दी थी। शूजित का कहना था कि कई पीढ़ियों से लड़कियां शादी के बाद अपने सास-ससुर के साथ जाकर रहती हैं, तो क्यों न अब इसका उल्टा किया जाए और लड़के अपना घर छोड़कर अपने सास-ससुर के साथ रहना शुरू करें…। शूजित दा के इस सवाल पर सोशल मीडिया पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं दिखी थीं। इसी तरह इन पुराने रस्मों की मुखालफत की एक मजबूत नज़ीर है, नेटफ्लिक्स की वेडिंग सीरीज ‘द बिग डे’।
इस रिएलिटी सीरीज में मॉडर्न सोच वाली रियल दुल्हनें भी उन्हें कमतर, सामान या गुड़िया जैसा दिखाने वाली रस्मों को शादी के हवनकुंड में ही स्वाहा कर देने का फैसला लेती हैं। अपने परिवार में बॉस लेडी मानी जाने वाली पल्लवी भी कन्यादान की रस्म से इंकार कर देती है, क्योंकि वह कोई सामान तो है नहीं कि एक इंसान (पिता) उसे किसी और को (पति) दान करे या सौंपे। बकौल पल्लवी, ‘मुझे समझ नहीं आता कि कैसे लोग एक जेंडर को दूसरे से ऊपर मानते हैं। शादी दो लोगों के बीच रिश्ते का जश्न है। मैं उन्हीं रिवाज़ों को मानना चाहती हूं, जो एक-दूसरे के बीच प्यार और सम्मान को बढ़ावा दे। अगर वह मुझे सुहाग की निशानी के तौर पर मंगलसूत्र पहनाएगा, तो मैं भी उसके गले में काला धागा बांधना चाहती हूं।’ इसी तरह आमी अपनी शादी में आम दुल्हनों की तरह सिर्फ दर्शक बनकर नहीं रहना चाहती। वह कहती है, ‘भारतीय दुल्हनों से उम्मीद की जाती है कि वो सुंदर हों, सुशील हों और नाज़ुक हों, पर मैं नाज़ुक नहीं हूं। मुझे याद है कि एक फिल्म में डायलॉग था कि दुल्हन को मुस्कुराना नहीं चाहिए, नीचे देखना चाहिए, शर्माना चाहिए, यानी ऐसी दुल्हन जो अपनी शादी में बस एक दर्शक बनी रहे, पर मैं ऐसी शादी नहीं चाहती थी। मैं अपनी शादी में इंजॉय करना चाहती थी।’
नहीं बदलनी अपनी पहचान
शादी की ये रस्में ही नहीं, शादी के बाद पिता का सरनेम हटाकर पति का सरनेम लगाने का चलन भी कहीं न कहीं लड़की से उसकी अपनी पहचान छीन लेता है। बीस, पच्चीस, तीस साल तक लड़की अपनी जिस पहचान के साथ जीती है, अपना नाम बनाती है, शादी के बाद अचानक उसकी वो पहचान बदल जाती है। मुझे याद है, अपनी एक दोस्त को फेसबुक पर लाख सर्च करने के बावजूद मैं इसलिए नहीं ढूंढ़ पाई थी क्योंकि जिस विभा भाटिया को मैं जानती थी, वो विभा मानव सेठी हो चुकी थी। सिर्फ सरनेम ही नहीं, कुछ कम्यूनिटीज में तो लड़की का पूरा नाम तक बदल जाता है, जैसे अनीता लालवानी की नई पहचान रिया पोपटानी हो जाती है यानी शादी के पहले बनाई उसकी पूरी पहचान खत्म। फिर, लोग तो शादी होते ही लड़कियों को मिसेज तिवारी, मिसेज कपूर बना ही देते हैं, जैसे उनका अपना कोई नाम या पहचान न हो। बहुत सी लड़कियां पति के प्रति प्यार और सम्मान दिखाने के लिए भी उनका नाम जोड़ती हैं, लेकिन बदलते वक्त के साथ उनकी ये सोच बदल रही है। वे दो-तीन दशक तक कमाई अपनी पहचान को अब बदलना नहीं चाहतीं।
याद होगा, अनुष्का शर्मा की विराट कोहली संग शादी के बाद क्रिकेटर रोहित शर्मा ने अनुष्का को शादी की बधाई के साथ अपना सरनेम न बदलने की सलाह दी थी। अनुष्का ने ऐसा ही किया भी और अब तो हिंदुस्तान ही नहीं, पड़ोसी देश पाकिस्तान तक में लड़कियों में शादी के बाद अपना सरनेम न बदलने का रुझान तेजी से बढ़ रहा है। ये लड़कियां शादी के बाद अपने पिता के नाम से ही पहचाने जाना चाहती हैं और ऐसा हो भी क्यों न। वक्त के साथ लोगों की सोच, समाज में जेंडर रोल सब बदल रहा है। अब लड़कियां सिर्फ शादी के सपने देखते हुए बड़ी नहीं होतीं। वे पहले पिता और बाद में पति पर निर्भर नहीं होतीं। अब वे आत्मनिर्भर हैं। कई बार तो अपने होने वाले पति से ज्यादा सफल भी, तो इन बदलावों का असर शादी की रस्मों में भी दिखना लाज़मी है। यहां भी पुरानी मान्यताएं टूटेंगी, नई सोच की कोंपलें फूटेंगी और कहीं न कहीं दीया, पल्लवी, आमी जैसी लड़कियों ने इस बदलाव के बीज रोपना शुरू कर दिया है।
सौजन्य - नवभारत टाइम्स