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• Fri, 2 Aug 2024 3:49 pm IST


वो हंसी के पात्र नहीं


सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही के अपने आदेश में कहा कि फिल्मों में डिसएबल्ड लोगों का मज़ाक उड़ाना बंद होना चाहिए और उन्हें सही तरीके से दिखाया जाना चाहिए। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली बेंच ने यह भी कहा कि फिल्मों में लंगड़ा, अपंग व पीड़ित जैसे शब्दों के इस्तेमाल से भी बचना चाहिए, जो ऐसे लोगों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाते हैं। यही नहीं, फिल्म बनाते समय दिव्यांगजनों की राय ली जाए कि ऐसे किरदार को कैसे प्रस्तुत किया जाए। उन पर हंसने से पहले जानें कि वे रोज़ाना कितनी चुनौतियों का सामना करते हैं।

कोर्ट ने यह टिप्पणी पिछले साल आई फिल्म आंखमिचौली के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के दौरान की। याचिकाकर्ता ने फिल्म में दिव्यांगों को गलत तरीके से दिखाने का विरोध किया था। इस फिल्म में पूरे परिवार को ही किसी न किसी शारीरिक कमी के साथ दिखाकर हास्य पैदा करने की कोशिश की गई है। परिवार का मुखिया भुलक्कड़ है, एक बेटा सुन नहीं सकता तो दूसरा हकलाता है, बेटी को दिन ढलते ही दिखना बंद हो जाता है।


फिल्म के किरदारों के नाम भारतीय क्रिकेटरों से मिलते हैं, जैसे पिता का नाम नवजोत सिंह, एक बेटे का हरभजन तो दूसरे का युवराज सिंह। संयोग देखिए कि हाल ही में असली वाले हरभजन और युवराज सिंह भी सोशल मीडिया पर डाले अपने एक विडियो को लेकर ऐसे ही विवाद में फंस चुके हैं। इसमें ये दोनों क्रिकेटर सुरेश रैना के साथ एक गाने पर लंगड़ाते हुए चल रहे हैं। ये बताना चाह रहे थे कि लीजेंड क्रिकेट लीग में लगातार 15 दिन तक खेलने से इनके शरीर का यह हाल हो गया है।

लेकिन डिसएबल्ड पीपल के लिए काम करने वाली एक संस्था ने इसे विकलांगो का अपमान बताते हुए दिल्ली के थाने में शिकायत दे दी। सोशल मीडिया पर ट्रोल होने के बाद हरभजन सिंह ने विडियो हटाते हुए माफी भी मांगी।

आंखमिचौली ऐसी पहली फिल्म नहीं, जिसने किरदारों को इस रूप में पेश कर दर्शकों को हंसाने की कोशिश की। इस तरह की कॉमिडी से हिंदी फिल्में भरी पड़ी हैं। तीन दशक पहले आई फिल्म बोल राधा बोल में एक्टर कादर खान को दिन ढलते ही दिखना बंद हो जाता था, वहीं जुदाई में कमीडियन जॉनी लीवर की पत्नी बनी उपासना सिंह बस तीन शब्द ही बोल पाती हैं। कुछ ऐसा ही किरदार नई वाली गोलमाल में तुषार कपूर का था।

मोटे लोगों को तो हमेशा कमीडियन के रोल ही मिलते रहे। टुनटुन, मुकरी, प्रीति गांगुली, गुड्डी मारुति को एक जैसी कॉमिडी में फिट कर दिया गया। दर्शकों ने भी ऐसे किरदारों पर खूब ठहाके लगाए। पहले मोटापा, रंग या किसी भी तरह की अपंगता पर मज़ाक बनाया जाता था तो लोग आहत नहीं होते थे। समय के साथ इस सोच में काफी बदलाव आया है। सोशल मीडिया के इस युग में अब छोटी सी बात पर भी लोगों की भावनाएं आहत होने लगी हैं। इसलिए, अपंगता जैसे विषय पर संवेदनशीलता की उम्मीद भी बढ़ गई है, खासकर, जब ऐसे लोग खेलों से लेकर हर फील्ड में सफलता के झंडे गाड़ रहे हों।

हाल में आई फिल्म श्रीकांत में इस बात का ध्यान रखा गया है। फिल्म एक दृष्टिहीन बिज़नेसमैन श्रीकांत बोला के जीवन पर आधारित है, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपनी ज़िद और लगन से सफलता की नई कहानी लिखी। इस विषय को संवेदनशील तरीके से पेश करने की लिस्ट में कोशिश, स्पर्श, सदमा, खामोशी, ब्लैक, इकबाल, तारे ज़मीन पर, बर्फी जैसी फिल्मों को भी जोड़ा जा सकता है।

सौजन्य से : नवभारत टाइम्स