पान खाइए तो बहुत लोग पूछते हैं कि पान खा रहे हो क्या? होंठ लाल है, गाल में गिलौरी सेट है। गिलौरी के गर्व से माथा ऊंचा कर हम कहते हैं, हां भाई, खाया है। आप भी लीजिए एक! नकली शहरातियों का इतिहास गवाह है, पूछने वाले के मन में लाख लालच हो, उसने गिलौरी नहीं थामी। बहुत दिन तक तो दिमाग में यही चलता रहा कि भला पान को कौन मना करता है? फिर समझ में आया कि यह न तो अपना फैजाबाद है, और ना ही नखलऊ। हमारे यहां आप कितने ही होंठ लाल कर लीजिए, गाल में एक तरफ नहीं, दोनों तरफ गिलौरी दबा लीजिए, मजाल है कि किसी के मुंह से यह सवाल निकल जाए कि पान खा रहे हो क्या? हमारे यहां तो बस यही पूछते हैं, और है? हो तो दो! या फिर, हमारे लिए क्यों नहीं लाए? क्या हमारे मुंह नहीं है? मने, आप गिलौरी दबाएं, धीमे-धीमे उसके रस से सराबोर होते रहें, और हम सूखा मुंह लेकर दाएं-बाएं देखते रहें! यह दिल्ली की परंपरा हो सकती है, अवध की नहीं।
अवध में आप किसी को नाराज होते हुए भी पाएंगे जल्दी पहचान नहीं पाएंगे। एक तो गिलौरी की वजह से जल्दी कोई कुछ बोलता नहीं। और अगर बोलता भी है तो इतने धीमे-धीमे कि बहुत ध्यान लगाकर समझना पड़ता है कि हां, चच्चा नाराज हो रहे हैं, जल्दी से पतली गली पकड़ लो! पान मुंह से तभी निकाला जाता है, जब डॉक्टर कहता है कि मुंह खोलो और बोलो ‘आ’। मेरे ऐसे कई दोस्त हैं जिनको मेरी भाभियां सोते से उठाती हैं कि अब तो थूक दो। क्या पान को सपने तक पहुंचाना है? वैसे जो पान खाते हैं, सपने में भी उनको पान दिखाई देता है। असम वाले लोग सपने में तामूल देखते हैं। मेरा असमिया दोस्त भास्कर तो कई बार सपने में सुपारी के पेड़ से तामूल तोड़कर छील रहा होता है। बताता है कि तामूल का जो स्वाद सपने में मिलता है, वो असल में जल्दी नहीं मिलता।
पान, सुपारी, कत्था हो और इलायची-लौंग स्वादानुसार। जो जर्दा लेना चाहें, ले लें, वरना बहुतेरे लोगों का काम किमाम से चल जाता है। पान छोड़ किमाम की ओर चलें तो पता चलेगा कि हमारे नखलऊ में कभी किमाम की ऐसी-ऐसी गोलियां बनती थीं कि एक मुंह में रख लीजिए तो दिन भर पान गमकता रहेगा। अब तो बेस्वाद चटनी किमाम मिलता है, मगर नखलऊ वाले हफीज भाई ने चौक में एक दुकान खोज रखी है। वहां ऐसी गोलियां मिलती हैं, कि जबान से लगते ही पान की उन गलियों में पहुंचा देती हैं, जहां हर ओर रस से भरी नदी अविरल बहती रहती है, बहती ही रहती है। पान पर कोई पुराण नहीं है, मगर पान प्रेमी इतने हैं कि किसी पुराण की जरूरत भी नहीं है। रस से भरी यह परंपरा हर किसी को अपने ही रंग में रंग लेती है। और जो इस परंपरा से परिचित नहीं हैं, वही पूछते हैं कि पान खा रहे हो क्या? और वही यह पूछने पर सिर हिलाने लगते हैं कि लो, एक बीड़ा तो लो!
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स