ब्रिटिश प्रधानमंत्री के रूप में लिज ट्रस की पारी की खराब शुरुआत हुई है। इसे ब्रिटेन के लोग भी मानेंगे। यह शुरुआत आर्थिक और राजनीतिक ही नहीं, कूटनीतिक स्तर पर भी खराब रही है। लिज ट्रस के प्रधानमंत्री पद संभालने के दो महीने के अंदर उनके वित्त मंत्री को कुर्सी खाली करनी पड़ी। यह कुर्सी फिर उस शख्स को मिली, जिनका आर्थिक दर्शन एकदम अलग माना जाता रहा है। पिछले हफ्ते क्वासी क्वार्टेंग की जगह लेने वाले जेरेमी हंट हालांकि यह बात दोहराते रहे हैं कि लिज ट्रस के नेतृत्व में ही सारे फैसले लिए जा रहे हैं, फिर भी उन्होंने टैक्स को लेकर प्रधानमंत्री के वादे को पलट दिया है।
नई पीएम की मुसीबतें
इसके बाद सत्ता के गलियारों में पूछा जा रहा है कि लिज ट्रस और कितने दिन अपने पद पर रहने वाली हैं। उनके सामने मुसीबतें भी कम नहीं हैं:
बैंक ऑफ इंग्लैंड ने आगाह किया है कि ब्याज दरों में अपेक्षा से अधिक बढ़ोतरी करने की जरूरत पड़ सकती है क्योंकि महंगाई पिछले 40 वर्षों में सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ रही है।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी लिज ट्रस की मूल आर्थिक नीतियों को गलती करार देते हुए कहा कि सरकार के मिनी बजट के बाद जो खलबली मची, वह मचनी ही थी।
यहां तक कि ब्रिटिश सुपर मार्केट चेन टेस्को के प्रमुख ने भी कहा कि कंजर्वेटिव्स के पास विकास की कोई योजना ही नहीं है।
प्रधानमंत्री बनने की रेस में ऋषि सुनक को हराकर ट्रस ने जो रुतबा हासिल किया था, वह इन वजहों से देखते-देखते गायब हो गया। सुनक ने तब आर्थिक मामलों में ट्रस के उतावलेपन को लेकर आगाह किया था, लेकिन टैक्स कटौती पर उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता से प्रभावित कंजर्वेटिव पार्टी के आम कार्यकर्ता उनके समर्थन में आ गए:
सत्तासीन होने के बाद ट्रस ने इन विचारों को अमल में लाने की कोशिश शुरू की और नतीजा सबके सामने है। नए वित्त मंत्री जेरेमी हंट ने माना कि पिछले फाइनैंस मिनिस्टर का ‘मिनी बजट’ ‘बहुत तेजी से, बहुत आगे तक’ चला गया।
ट्रस को बचाने के लिए क्वार्टेंग को बलि का बकरा बनना ही था, लेकिन उनके जाने के बाद भी कंजर्वेटिव पार्टी में जिस तरह की निराशा दिख रही है, उससे साफ है कि ब्रिटेन इस वक्त शासन के मोर्चे पर किस तरह की गंभीर मुश्किलों का सामना कर रहा है।
साख पर सवाल
ब्रिटेन हमेशा से गंभीर नीतियों वाला देश रहा है। सबसे बुरे दौर में भी ब्रिटिश नीति-निर्माताओं ने धैर्य और दृढ़ता के साथ संकट का सामना किया और नतीजे हासिल किए। इसी की बदौलत यह वैश्विक राजनीतिक में अपने कद से ज्यादा हैसियत हासिल कर पाया। लेकिन आज यह सवाल पूछा जा रहा है कि नीतियां सावधानी से हर पहलू पर सोच-विचार कर बनाने के बजाय पूरी तरह से विचारधारा के आधार पर बनाई जा रही हैं:
पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन एक के बाद मुसीबत में फंसता गया। ब्रेग्जिट उसके लिए जबर्दस्त झटका था और यूरोपियन यूनियन से बाहर आने की वजह से हुए नुकसान से ब्रिटेन अभी तक उबर नहीं पाया है। इसे लेकर राजनीतिक दलीलें जो भी हों, आर्थिक तर्क बेहद कमजोर दिखते हैं। लगता यही है कि ब्रिटिश नीति-निर्माता अभी तक इस बड़े बदलाव को पचा नहीं पाए हैं।
प्रचंड बहुमत के साथ कार्यकाल शुरू करने वाले बोरिस जॉनसन को तमाम आरोपों के बीच प्रधानमंत्री पद छोड़ना पड़ा और पार्टी उनका कोई उपयुक्त उत्तराधिकारी नहीं खोज पाई।
इस बीच कीर स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी आक्रामक तेवर दिखाते हुए शासन करने वाली पार्टी के रूप में उभरी है। इसने टोरियों की अक्षमता से उपजी अव्यवस्था का फायदा उठाया और ऐसा लगता है कि दिसंबर 2024 में होने वाले चुनावों में लेबर पार्टी जीत सकती है।
हाल में खराब गवर्नेंस के चलते ब्रिटेन की वैश्विक छवि को काफी नुकसान हुआ है। पोस्ट ब्रेग्जिट फॉरेन पॉलिसी की तमाम चर्चाओं के बावजूद तथ्य यह है कि ब्रिटेन अपने में ही मगन है। जब तक वह घरेलू आर्थिक समस्याओं पर काबू नहीं पाता और लिज ट्रस की सरकार टिकाऊ नहीं होती हिंद-प्रशांत की ओर ब्रिटेन के ‘झुकाव’ को भी शायद ही कोई गंभीरता से लेगा। भारत जैसे देश के लिए, जिसने हिंद-प्रशांत को लेकर ब्रिटेन के प्रो-एक्टिव रुख का स्वागत किया था, उसके साथ भी ट्रस सरकार संबंधों की बेहतरी के मामले में सुस्त पड़ी है:
अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन द्वारा महत्वाकांक्षी भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौते के लिए ‘दीपावली नहीं, तो साल के अंत तक तो जरूर’ की समयसीमा निश्चित किए जाने के बाद प्रधानमंत्री ट्रस ने भी इसकी पुष्टि कर दी थी, लेकिन फिर भी उनकी गृह मंत्री सुएला ब्रेवरमैन ने यह पक्का कर दिया कि समझौता तय समय तक न हो पाए।
हालांकि ब्रेवरमैन के भारत के साथ ओपन बॉर्डर माइग्रेशन पॉलिसी का सार्वजनिक विरोध करने और भारतीयों को ‘ओवरस्टे करने वाला सबसे बड़ा ग्रुप’ बताने के पीछे उनका टोरी पार्टी में खुद को ट्रस की प्रतिद्वंद्वी के तौर पर पेश करने का मकसद ज्यादा था, लेकिन फिर भी इसकी वजह से भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौते को लेकर राजनीतिक माहौल खराब हो गया।
स्किल्ड वर्कर्स मोबिलिटी भारत के लिए अहम मसला है और भारत इस पर सहमति बने बगैर यह समझौता जल्दबाजी में नहीं करेगा।
साफ है कि ब्रिटेन अभूतपूर्व राजनीतिक हलचल से गुजर रहा है, लेकिन इसके पीछे लिज ट्रस के नेतृत्व की कमियां और टोरी पार्टी की आपसी प्रतिद्वंद्विता है। ऐसे में भारत को धैर्य रखते हुए लंदन के साथ बातचीत जारी रखने की जरूरत है ताकि सर्वश्रेष्ठ नतीजे हासिल हो सकें।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स