तब बॉम्बे (मुंबई) ब्रिटिश भारत का एक प्रमुख व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र था। वहां रुस्तमजी सहराबजी मुदलियार का व्यापार और कानून का व्यवसाय था। बोलचाल में लोग उन्हें रुस्तमजी कहते थे। वह गांधीजी के मुवक्किल और निकटतम सहयोगी भी थे। वह अपना अधिकतर कार्य गांधीजी की सलाह से ही करते थे। उन दिनों कलकत्ता से उनका सामान आता था, पर वह इस पर चुंगी चुराते थे। यह बात उन्होंने गांधीजी से छिपाई हुई थी। संयोगवश एक बार चुंगी अधिकारियों ने उनकी यह चोरी पकड़ ली।
अब उनके जेल जाने की नौबत आ गई। स्वयं को मुसीबत में देखकर वह दौड़े-दौड़े गांधीजी के पास गए और बोले, ‘बापू, किसी तरह मुझे जेल जाने से बचा लीजिए। जो आप कहेंगे, मैं वही करूंगा।’ गांधीजी को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने रुस्तमजी को बुरी तरह फटकारा। वह बोले, ‘अगर तुम वास्तव में मेरी सलाह मानना चाहते हो, तो अधिकारियों के पास जाकर अपना अपराध स्वीकार कर लो। सच बोलने से तुम्हें जेल ही क्यों न हो जाए, पर तुम्हारी अंतरात्मा को संतुष्टि मिलेगी। सच बहुत बड़ी शक्ति है।’ रुस्तमजी तुरंत चुंगी अधिकारियों के पास पहुंचे और उनके समक्ष अपना अपराध स्वीकार कर लिया।
अधिकारी उनकी स्पष्टवादिता से प्रसन्न हुए और बोले, ‘यदि तुम चुंगी की बकाया राशि से दोगुनी राशि जमा करा देते हो तो तुम्हें छोड़ दिया जाएगा। लेकिन याद रखना कि तुम्हें तुम्हारे सच बोलने के कारण और इस शर्त पर छोड़ा जा रहा है कि भविष्य में तुम ऐसा कभी नहीं करोगे।’ रुस्तमजी ने स्वीकार कर लिया। अब रुस्तमजी सच की शक्ति को पहचान चुके थे।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स