बड़े दिनों बाद दो पुराने मित्रों से बात हुई। पता चला कि दोनों एक जैसी उलझन से घिरे हुए हैं। उनके बच्चे परिवार की उम्मीदों के विपरीत अपने भविष्य की एक अलग राह तय करना चाहते हैं, जिससे घर में महाभारत छिड़ी हुई है। एक मित्र के खानदान में दो पीढ़ियों से लगभग सभी लोग डॉक्टर हैं। उनका अपना एक अस्पताल भी है। अब इस विरासत को संभालने के लिए अगली पीढ़ी को तैयार किया जा रहा है। लेकिन उनके बेटे की इसमें ज़रा भी दिलचस्पी नहीं। उसका मन शुरू से थिएटर और डिबेट्स में ही रमता था और वह इसी में अपना करियर भी बनाना चाहता है। उसे क्या मालूम कि जिस घर में वह पैदा हुआ है, वहां जन्म लेते ही बच्चे का भविष्य तय हो जाता है। अब उन डॉक्टर साहब की सबसे बड़ी चिंता यही है कि वर्षों की मेहनत के बाद उनके परिवार ने इतना नाम कमाया है, बेटा उस परंपरा को आगे बढ़ाने के बजाय आर्टिस्ट बनेगा तो लोग क्या कहेंगे।
दूसरे मित्र की बेटी ऑफिस के अपने एक कुलीग से शादी करना चाहती है। लड़के में कोई बुराई नहीं है, बस वह उनके समाज का नहीं है, इसे लेकर घरवाले शादी के लिए तैयार नहीं हो पा रहे हैं। उनका कहना है कि खानदान में आज तक किसी ने समाज से बाहर शादी नहीं की, मेरे घर में ऐसा हुआ तो लोग क्या कहेंगे, किस-किस को जवाब देंगे।
दोनों की बातें सुनकर मन में ख्याल आया कि आखिर ये कौन लोग हैं, जिनकी चिंता में हम अपनी ज़िंदगी गुज़ार देते हैं। हो सकता है कि जिनके बारे में सोच-सोचकर हम जीवन के अहम फैसले नहीं ले पाते, उन्हें हमसे कोई फर्क भी न पड़ता हो। देखिए, हम कुछ भी कर लें, जिन्हें कहना होगा, वो तो तब भी कहेंगे। एक पुरानी कहानी है ना कि बाप-बेटा बाज़ार से खच्चर खरीद कर ला रहे थे। घर दूर था, तो बेटे ने पिता से कहा कि आप खच्चर पर बैठ जाइए। रास्ते में लोगों ने देखा तो तंज कसने लगे कि देखो कैसा बाप है, खुद बैठ गया और बेटा ऐसे जा रहा है।
यह सुनते ही पिता उतर गए और बेटे को बैठा दिया। थोड़ा आगे चले ही थे कि फिर आवाज़ आई- कैसा बेटा है, खुद बैठ गया और बाप पैदल चल रहा है। अब दोनों एकसाथ उस पर बैठ गए तो तंज आया कि कैसे लोग हैं, बेचारे खच्चर पर इतना ज़ुल्म ढा रहे। यह सुनकर दोनों उसके साथ पैदल ही चलने लगे तो लोग हंसने लगे कि देखो कैसे बेवकूफ हैं, इनके पास खच्चर है, तब भी पैदल जा रहे। तो इस कहानी का सबक यह है कि आप कुछ भी करें, दुनिया सवाल करेगी ही, हर बात पर टोकेगी, बिन मांगे सलाह देगी।
लोग क्या कहेंगे, क्या सोचेंगे, इसकी जितनी परवाह करेंगे, उतना परेशान होंगे, कोई काम नहीं कर पाएंगे, जीवन जी ही नहीं पाएंगे। इस बात को हिंदी फिल्मों के मशहूर गीतकार आनंद बख्शी साहब ने फिल्म अमर प्रेम में कितने खूबसूरत शब्दों से समझाया है- ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातों में कहीं बीत ना जाए रैना’। कहने वालों ने तो महापुरुषों को भी नहीं छोड़ा तो हम क्या चीज़ हैं। इसलिए गैरों की फिक्र करना छोड़ दें। बच्चों के किसी फैसले से अगर हमें कोई आपत्ति नहीं तो कोई क्या कहेगा, इस बात से परेशान होने की ज़रूरत ही नहीं। इसके साथ ही यह बात भी समझनी होगी कि हम अपनी इच्छाओं का बोझ बच्चों पर क्यों लादें। क्यों ज़रूरी हो कि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, वकील का बेटा वकील और एक्टर का बेटा एक्टर ही बने। हर इंडीविजुअल अलग होता है, उसके अपने अलग इंटरेस्ट होते हैं। इस बात को समझ लेंगे तो किसी की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स