हाथरस काण्ड : वो सच जो कानून के दायरे से बाहर रह गए
आखिरकार जिसका अंदेशा था, वही हुआ। हाथरस कांड में सीबीआई ने अपनी चार्जशीट जमा कर दी और इस तरह जो स्क्रिप्ट घटना के 'चौथे दिन' से लिखनी शुरू की गई थी, वह अब सीबीआई के ठप्पे के साथ कोर्ट में जमा हो गई है।
धर्म, जाति, संप्रदाय से अलग होकर हम सभी चाहते हैं कि बेहतर समाज के लिए 'वास्तविक' अपराधी को सजा अवश्य मिले परंतु जब किसी अपराध की पटकथा ''रच कर'' उसे साबित कराने को हथकंडे अपनाए जायें, तो यह समाज की समरसता के लिए पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। कुछ तो कानून और कुछ कोर्ट की सालों लंबी खिंचती प्रक्रिया के कारण हमारी सोच कुछ इस तरह की हो चुकी है, कि आरोपी को पहले दिन से अपराधी मान लेते हैं और इसी सोच ने अच्छे से अच्छे कानून के दुरुपयोगों को जन्म दिया।
महिलाओं से जुड़े कानूनों का सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ और अब भी हो रहा है या यूं कहें कि लगातार बढ़ ही रहा है। प्रेमिका प्रेमी की हत्या गला दबाकर कर देती है तो उसके पीछे वजहें खोजी जाती है ताकि वह बेचारी साबित की जा सके। इसी तरह हर बालिग महिला ''बहला फुसला'' ली जाती है और लड़के से घंटों घंटों मोबाइल पर फोन करने के बावजूद हर लड़की प्रेम के मामले में ''मासूम'' होती है। नाक में दम कर देने वाला हर दलित '' बेचारा'' और हर विवाहित महिला की मौत ''दहेज हत्या'' होती है।
मरते हुए व्यक्ति के बयान को सनातन सत्य और हर पीड़ित को निर्दोष बताने वाली इस अवसरवादी व्याख्या का फायदा किसी सच को स्थापित करने में नहीं बल्कि झूठ की बुनियाद को पुख्ता में हो रहा है।
हाथरस कांड में घटना वाले दिन से लेकर अगले दो तीन दिन तक अलीगढ़ मेडीकल कॉलेज में एडमिट की गई पीड़िता का वीडियो रिकॉर्डेड बयान एकदम अलग था तो कैसे वह बयान दिल्ली के अस्पताल तक जाते जाते पलट गया, वह भी विपक्षी दलित नेताओं के मजमे के बाद... इतना ही नहीं पीड़िता की मां का बयान भी उतनी ही बार पलटा जितनी बार किसी नेता ने उससे मुलाकात की, सभी परिजन नार्को टेस्ट कराने से भी मुकर गए...क्या यह काफी नहीं है सच्चाई बयां करने को, यदि अपराध सच में आरोपियों ने ही किया था तो नार्को से ये ( पीड़ित के परिजन) क्यों मुकरे। सीबीआई तो वही रिपोर्ट करेगी ना जो उसे पीड़ित बतायेंगे और तो और जिसके खेत में वारदात हुई वह चश्मदीद किशोर 'छोटू' भी नार्को से क्यों मुकरा.. यह कोई ऐसी पहेली नहीं कि जिसे सब समझ ना रहे हों... परंतु...इस पूरे मामले में नार्को टेस्ट कराने की कानूनी बाध्यता ना होने का फायदा उन षडयंत्रकारियों को मिलेगा जो तमाम तरह से '' लाभान्वित '' हुए।
ग्रामीण इलाकों में पीढ़ी दर पीढ़ी पलती रंजिशों के समाजशास्त्र में यह केस भी अपने भविष्य के साथ आगे बढ़ रहा है। अन्याय के बाद जन्म लेने वाले अपराध से उपजी रंजिशें पीढ़ियों को निगल जाती हैं , इस दलित राजनीति का घिनौना रूप गांव के चप्पे चप्पे पर जैसे चिपक कर रह गया है, हाथरस का ये गांव चंदपा अब ठाकुरों और दलितों के खेमे में बंट गया है और कोई न्याय इसे पाट नहीं सकता।
19 साल पहले इसी पीड़ित दलित परिवार ने SCSTAct में 'फर्जी केस' दर्ज कराकर जब 2 लाख रुपये लेकर इन्हीं ( वर्तमान आरोपियों) से राजीनामा किया था, रंजिश तो तभी से शुरू हो गई थी, इस दुश्मनी को गाढ़ा रंग मिला आरोपी एक लड़के से मृतका के प्रेम संबंधों के चलते। इत्तिफाक ऐसा कि लड़की से संबंध रखने वाले का नाम संदीप और लड़की भाई का भी नाम संदीप... विक्टिम लड़की के सबसे पहले जो वीडियो आए वे सारी कहानी बताते हैं परंतु विक्टिम के परिवारीजन शुरू से ही संदेह के घेरे में रहे और इसकी तस्दीक उन्होंने नार्को टेस्ट से मना करके कर भी दी। तमाम अन्य कारणों को तो जाने ही दें।
बहरहाल अब आगे की राजनीति के लिए वोटों का कैश काउंटर खुल चुका है, जिसमें विपक्ष प्रदेश की योगी सरकार को कठघरे में लाता रहेगा और सीबीआई रिपोर्ट के आधार पर अपनी अपनी हांडी चढ़ाएगा, इस हांडी में पिसेगा तो पूरा का पूरा चंदपा गांव।
- अलकनंदा सिंंह