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DevBhoomi Insider Desk
• Fri, 10 Dec 2021 6:16 pm IST


इन्हें अचानक क्यों आने लगी मथुरा की याद?


चुनाव के ठीक पहले सियासी मैदान के शूरमाओं की ओर से बयान आएं तो उनके राजनीतिक अर्थ निकाले ही जाएंगे। अगर बयान आबादी के लिहाज से सबसे बड़े और राजनीति के हिसाब से सबसे अहम राज्य उत्तर प्रदेश से जुड़ा हो तो उसका विश्लेषण कुछ ज्यादा ही होगा। यहां प्रसंग उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के उस ट्वीट का है, जिसमें उन्होंने कहा था, ‘अयोध्या और काशी में भव्य मंदिर निर्माण का काम जारी है, मथुरा की तैयारी है।’

याद किया जा सकता है कि साल 2003 के राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के चुनावों में बीजेपी ने एक नई परिपाटी डालने की कोशिश की थी। तब केंद्र में वाजपेयी की अगुआई वाली सरकार थी। उस वक्त बीजेपी के चुनावी रणनीतिकार प्रमोद महाजन ने तीनों राज्यों के चुनावों के लिए ‘बीएसपी’ को मुद्दा बताया था। बीएसपी यानी बिजली, सड़क और पानी।

साफ शब्दों में कहें तो बीजेपी ने 18 साल पहले चुनावी राजनीति के लिए विकास के मुद्दे को पहले पायदान पर रखना शुरू किया था। साल 2014 और 2019 के संसदीय चुनावों में नरेंद्र मोदी ने भी विकास को सबसे ऊपर रखा था। हालांकि बीजेपी के अब तक के उभार में राम मंदिर आंदोलन की भी बड़ी भूमिका रही है। हर चुनाव में कमोबेश वह इस मुद्दे के इर्द-गिर्द रहती भी आई है। लेकिन हाल के कुछ चुनावों में बीजेपी ने प्रमुखता से सिर्फ विकास का मुद्दा उठाया है। हिंदुत्व और राममंदिर से जुड़े मुद्दों को उसने उनके बाद ही रखा है। यही वजह है कि केशव प्रसाद मौर्य ने जब मथुरा का मुद्दा उठाया तो उसके पीछे के अर्थ तलाशे जाने लगे।

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साल 2017 में उत्तर प्रदेश की कमान संभालने के बाद से अब तक योगी आदित्यनाथ ने राजनीति की दुनिया में लंबी यात्रा तय की है। धीरे-धीरे वह बीजेपी की राजनीति के केंद्र में आते जा रहे हैं। हाल ही में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी आलाकमान ने उनके हाथों राजनीतिक प्रस्ताव पेश करवाकर एक तरह से उनकी अहमियत को ही स्थापित करने की कोशिश की है। इन सबके बावजूद एक सच यह भी है कि साल 2017 की उत्तर प्रदेश की जीत के एक स्तंभ केशव प्रसाद मौर्य भी रहे। उन दिनों पार्टी के वही अध्यक्ष थे। इस नाते मुख्यमंत्री पद पर उनकी निगाह भी रही ही होगी। लेकिन मुख्यमंत्री पद की दौड़ में वह पिछड़ गए। बेशक उत्तर प्रदेश की शासन व्यवस्था में उन्हें नंबर दो का पद हासिल हुआ है, लेकिन शायद उनकी उम्मीदें बरकरार हैं।
कुछ राजनीतिक जानकार मौजूदा दौर को हिंदुत्व का नवजागरण काल मानते हैं। केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान कहते रहे हैं कि बहुसंख्यक वैचारिकी के उभार की वजह अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति रही है। नैरेटिव केंद्रित राजनीति का भी हिंदुत्व दर्शन और विचार की बुनियाद को मजबूत करने में महत्वपूर्ण योगदान है। केशव प्रसाद मौर्य की राजनीतिक यात्रा विश्वहिंदू परिषद के दिग्गज अशोक सिंघल की छत्रछाया में शुरू हुई और आगे बढ़ी। इसलिए यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि मौर्य इन तथ्यों को अच्छी तरह समझते होंगे। मंडल आयोग के बाद राजनीति जिस तरह पिछड़ावाद की ओर उन्मुख हुई है, उसकी वजह से विभिन्न दलों में स्वाभाविक रूप से पिछड़े वर्गों से राजनीतिक नेतृत्व उभरा। कई दलों ने सायास तरीके से भी पिछड़े वर्ग के नेतृत्व को उभारने की कोशिश की। इस प्रक्रिया से बीजेपी भी अलग नहीं है। इसका असर जमीनी स्तर पर भी दिखता है। गैर-यादव पिछड़ी जातियों में बीजेपी की गहरी पैठ इसका ठोस उदाहरण है। केशव प्रसाद मौर्य पिछड़े वर्ग से ही आते हैं। इसलिए अगर चुनाव बाद के नए समीकरणों में उन्हें अपने लिए अवसर दिखता है तो उसमें कुछ असामान्य भी नहीं है।

बेशक अभी तक उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीति में योगी आदित्यनाथ के लिए कोई चुनौती नजर नहीं आती। लेकिन बीजेपी में ही असम का भी उदाहरण है। तत्कालीन मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल की ही अगुआई में पार्टी की असम में जीत हुई। लेकिन चुनाव बाद उनकी जगह हिमंता बिस्वसर्मा को कमान मिल गई। कुछ राजनीतिक समीक्षक इस संदर्भ में भी केशव प्रसाद मौर्य के ट्वीट को देख रहे हैं। हालांकि यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि 1991 का पूजास्थल कानून अब भी बरकरार है, जो कहता है कि आजादी के समय देश के पूजास्थलों की धार्मिक अवस्थिति थी, उसमें बदलाव नहीं किया जा सकता। अयोध्या के रामजन्मभूमि मंदिर को अपवाद माना गया है। ऐसे में मौर्य के बयान पर स्वाभाविक ही सवाल उठाए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि शासन में जिम्मेदारी के पद पर बैठा व्यक्ति ऐसा बयान कैसे दे सकता है।

यह भी सच है कि राममंदिर आंदोलन के उभार के दिनों से ही संघ परिवार अयोध्या के साथ ही काशी और मथुरा के भी मामलों का जिक्र करता रहा है। इसलिए यह मान लेना कि संघ विचार परिवार की राजनीति इससे इतर हो जाएगी, नादानी ही कही जाएगी। वैसे भी बीजेपी के वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है, जो अक्सरहां उससे इन मुद्दों पर राय जानने की कोशिश करता रहता है। पार्टी को इन मुद्दों के प्रति आग्रही अपने वोटरों के साथ भी रिश्ता रखना है, इसलिए वह मथुरा जैसे मुद्दों को छोड़ नहीं सकती। मथुरा के मुद्दे को उठाने की एक वजह बीजेपी के लिए अपने प्रतिबद्ध वोटरों के रुझान को अभिव्यक्ति देना तो है ही, मौजूदा राजनीति में खुद प्रासंगिक बने रहना भी है। अपने कोर वोटरों को जोड़े रखने के लिए जहां ऐसे कोर मुद्दों पर बीजेपी को बने रहना होगा, वहीं विकास के मुद्दे पर भी आक्रामक राजनीति करनी होगी। केशव प्रसाद मौर्य के हालिया ट्वीट को इन तथ्यों के संदर्भ में समग्रता से देखा जाना चाहिए।