पिछले वीकेंड बाहर जाना हुआ। ट्रेन में एक नॉवल उठा ली, ट्वेल्थ फेल। कैच लाइन थी – हारा वही जो लड़ा नहीं। एक सच्ची कहानी पर अनुराग पाठक की दोस्त मनोज शर्मा पर लिखी नॉवल जो ऐसे संघर्ष से होकर गुजरती है, जिसमें कई बार थक हारकर बिखर जाने का मन करता है। रुक जाने का मन करता है, लेकिन फिर जेहन में कोई बिजली कौंधती है जिसमें धुंधली होती मंजिल पहले से ज्यादा उजली दिखने लगती है।
संघर्षों से सबका वास्ता पड़ता है। अपने संघर्षों से तो हम सीखते ही हैं, दूसरों के संघर्ष भी तब अक्सर अपने हो जाते हैं, जब उनमें हम अपने संघर्ष का कोई टुकड़ा खोज लेते हैं। इन टुकड़ों से ही जुड़कर जिंदगी आकार लेती है। कहानी शुरू होती है मुरैना की तहसील जौरा से, जहां पढ़ाई में कतई ऐवरेज लड़का मनोज 12वीं में इसलिए फेल हो जाता है, क्योंकि एक एसडीएम उस साल एग्जाम में नकल नहीं होने देता। इसके बाद कई उलझनों से घिरने के बाद किस्मत उसे आईपीएस बनने के ख्वाब तक ले जाती है। वह ऐसे सफर पर चल पड़ता है जो कदम-कदम पर उसे तोड़ता है। पर वह रुकता नहीं। पन्ने पलटते-पलटते मेरी ट्रेन भी स्टेशन दर स्टेशन पीछे छोड़ती हुई मेरी मंजिल पर रुक जाती है। कहानी अधूरी रह जाती है। मैं संघर्षों की भूलभुलैया में खो जाता हूं। न जाने कब-कब के और किस-किस के संघर्ष गड्डमड्ढ होकर मुझसे पूछने लगते हैं कि कौन सा संघर्ष सबसे बड़ा था।
रात को थका मांदा सो गया। सुबह कुछ ऐसे लोगों से मिला जिनसे बरसों से नहीं मिला था। उनमें एक चाची भी थी, जिनके साथ कोरोना के दिनों हुए हादसों की आधी-अधूरी कहानी ही मेरे पास थी। चाची ने खुद वह कहानी उस दिन पूरी कर दी। जवान बेटे की दोनों किडनियां खराब हो गई थीं। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था पर मां हार मानने को तैयार नहीं थी। उतने पैसे नहीं थे, पर जैसे-तैसे लुधियाना में एक डॉक्टर किडनी ट्रांसप्लांट को तैयार हो गया। मां अपनी किडनी दे रही थी। बहुतों ने मदद की। कई लाख रुपये इकट्ठे हुए। ऑपरेशन सफल था, पर कुछ ही दिन में बेटे को कोरोना ने जकड़ लिया। अब और रुपये चाहिए थे। मां ने कहा, कुछ भी हो बेटे को बचाऊंगी। किस्मत साथ दे रही थी। बेटा ठीक हो गया, लेकिन इधर पति को कोरोना हो गया। उनके 15 दिन अस्पताल में बीते और किडनी देकर बिना आराम किए एक पत्नी पति को बचाने में जुट गई। पति नहीं बच सका। अब बेटा और मां मिलकर वे रुपये लौटाने में जुटे हैं जो तब मदद में मिले थे।
अगले दिन लौटते हुए एक और संघर्ष जेहन से चिपक चुका था। किताब दिल्ली पहुंचने से पहले पूरी हो गई थी। मनोज लास्ट अटैम्प्ट में आईपीएस बन गया था। मैं किताब की कैच लाइन को घूर रहा था – हारा वही जो लड़ा नहीं।
सौजन्य से : नवभारत टाइम्स