एक ओर उत्तराखंड की चौखट पर चुनाव खड़े हैं दूसरी ओर कोरोना की दस्तक है जो दरवाजे पर दोबारा पड़ रही है। लेकिन चुनावी रैलियों मे जुटे नेताओं में किसी को एक लाख की भीड़ चाहिंए तो किसी को तीन लाख की, तो इस सब मे बिन बुलाए महमान कोरोना के कदमों की आहट क्या राजनीतिक दल सुनने मे समर्थ है या कहूं कि वो इसे सुनने के इच्छुक है भी या नही ?