देहरादून। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी जाने की असल वजह मंत्री विधायकों में भारी असंतोष बना। प्रचंड बहुमत के बावजूद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने विधायकों को पूरी तरह से दरकिनार किया। मंत्रियों के विभाग में उनका भारी दखल था। अफसरों को जरूरत से ज्यादा तरजीह दी गई। आलम यह था कि मंत्रियों पर नजर रखने के लिए ब्यूरोक्रेट्स को खुली छूट थी। इस तरह के आरोप लगातार लगते रहे कि कुछ एक ब्यूरोक्रेट्स के भरोसे त्रिवेंद्र सरकार चला रहे थे।
त्रिवेंद्र किसी भी फैसले में विधायकों और मंत्रियों की रायशुमारी तक नहीं करते थे। अफसरों की मनमानी से परेशान कई विधायक लगातार शिकायत करते रहे, लेकिन त्रिवेंद्र ने अपने विधायकों की एक नहीं सुनी। सीएम त्रिवेंद्र की अनदेखी का कुमाऊं के विधायक सर्वाधिक शिकार हुए। कुमाऊं के विधायकों ने कई बार मुख्यमंत्री के खिलाफ मोर्चा भी खोला, लेकिन त्रिवेंद्र झुकने को तैयार नहीं हुए। विधायक पूर्ण सिंह फर्त्याल ने जब अफसरों के खिलाफ गुहार लगाई तो उनको लताड़ लगी। यह अलग बात है कि फर्त्याल बैकफुट पर नहीं आए। बिशन सिंह चुफाल ने भी अपने क्षेत्र की अनदेखी का आरोप लगाया। राजेश शुक्ला अफसरों की मनमानी की लगातार शिकायत करते रहे। ऐसे कई वाक्या औऱ भी हुए, लेकिन सीएम ने असंतोष को अनसुना किया। जब विधायकों का सब्र खत्म हो गया तो उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व से गुहार लगाई, लेकिन सीएम ने इसे भी नजरांदाज कर दिया।
त्रिवेंद्र का अफसरों पर अति भरोसा था। गैरसैंण को कमिश्नरी बनाने जैसे फैसले में उन्होंने किसी विधायक या सांसद की राय तक नहीं ली। यह फैसला ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ। कुमाऊं के विधायकों ने जब मोर्चा खोला तो गढ़वाल के कई असंतुष्ट विधायक भी उनके साथ हो गए। विधायकों ने इस्तीफे तक की धमकी दे दी, जिसके बाद केंद्रीय नेतृत्व हरकत में आया। केंद्रीय नेतृत्व ने बड़ी संख्या में विधायकों के असंतोष को थामने के लिए केंद्रीय नेताओं को दिल्ली से दून भेजा। उसी का नतीजा है कि मुख्यमंत्री को आखिरकार त्याग पत्र देना पड़ा।